दवा की तरह खाते जाइऐ गाली बुजुर्गों की
रूपेश कुमार सिंह
‘‘वृद्धावस्था की ओर बढ़ना एक ऐसी शारीरिक प्रक्रिया है जिसे उल्टा नहीं जा सकता, जो व्यत्तिफ़ के वृद्धिकाल के बाद समूचे जीवन में घटित होती रहती है, और बिना रूके मृत्यु तक चलती रहती है।’’ वास्तव में बुजुर्ग होना एक स्वाभिक प्रक्रिया है। जिसका अन्तिम लक्ष्य मृत्यु ही है। एक लम्बे कालऽण्ड को पूरा करके व्यत्तिफ़ बुजुर्ग होने लगता है। समाजशास्त में वृद्धावस्था को लेकर तमाम तरह के मत हैं। विश्व के पैमाने पर बुजुर्गों को लेकर तमाम तरह के शोध चल रहे हैं। तुलनात्मक अध्ययन भी हो रहे हैं। बुजुर्गों के ऽालीपन और उपेक्षा को ऽत्म करने की कोशिशें भी हो रही हैं। बावजूद इसके पूरी दुनिया में वृद्ध लोगों का जीवन स्तर बहुत दयनीय है। एकांकी परिवार और उपभोत्तफ़ावादी संस्कृति ने तो पिछड़े देशों में भी बुजुर्गों का जीवन बदहाल बना दिया है। स्वास्थ्य, भोजन, देऽभाल, काम और मनोरंजन की कैसी व्यवस्था हो जिससे बुजुर्ग अपना जीवन बेहतर और शान से जी सके? इसके लिए भी प्रयास हो रहे हैं, लेकिन वो सब नाकाफी ही साबित हो रहे हैं। विश्व के स्तर पर बुजुर्गों के मुद्दों पर चर्चा हो सके इसके लिए एक अक्टूबर को ‘विश्व बुजुर्ग दिवस’ मनाया जाता है। इसकी शुरूआत 1991 से हुई। 14 दिसम्बर 1990 को संयुत्तफ़ राष्ट्र ने यह निर्णय लिया। समझा जा सकता है कि जब पानी सिर से ऊपर हो गया तब जाकर दुनिया को बुजुर्गों की चिन्ता हुई। यूरोप सहित पिछड़े देशों में भी बुजुर्गों का जीवन स्तर सुधारने के लिए काम शुरू हुआ। भारत में तो बुजुर्गों की दशा बहुत ही सोचनीय है। 2015 में हेल्प इंटरनेशनल नेटवर्क ऑफ चौरिटीज ने 96 देशों का एक सर्वे किया। वैश्विक रैंकिंग में स्विटजरलैंड सबसे बेहतरीन स्थिति में रहा। भारत की हालत बहुत ऽराब रही। बुजुर्गों के मामले में भारत 71 वें स्थान पर रहा। अनुमान के मुताबिक 2050 तक 96 में से 46 देशों में 30 फीसदी आवादी 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वालों की होगी। वर्तमान में विश्व में 80 साल से ऊपर वाले करीब 16 फीसदी लोग हैं। भारत में 1999 से बुजुर्गों के लिए तेजी से सोचना शुरू हुआ। 2007 में वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण
विधेयक संसद में पारित हुआ।
‘‘ पत्थरों के शहर में कच्चे
मकान कौन रऽता है
आजकल हवा के लिए
रोशनदान कौन रऽता है
बहलाकर छोड़ आते हैं वृद्धाक्षम में मां-बाप को
क्यूंकि आजकल घरों में
पुराना सामान कौन रऽता है’’
इसी तर्ज पर भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया में बड़े पैमाने पर ओल्ड एज होम या वृद्धाक्षम ऽुल रहे हैं। तमाम सरकारी और अर्द्ध सरकारी संस्थाएं बुजुर्गों के लिए सेल्टर दे रही हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या बुजुर्गों के लिए रहने को एक छत का होना ही काफी है? उम्र के साथ उनकी इच्छाएं और महत्वाकांक्षा ऽत्म हो जाती हैं? क्या बुजुर्गों के लिए सम्मानजनक काम की आवश्यकता नहीं है? घर क्यों बुजुर्गों से बेगाने हो रहे हैं? बुजुर्ग क्यों अपनों के लिए ही बोझ हो रहे हैं? क्या सरकार को अलग से बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य, भोजन और काम के लिए योजना नहीं चलानी चाहिए? अपनी संस्कृति पर दंभ भरने वाले मुल्क भी क्यों बुजुर्गों के मामले में दम तोड़ते नजर आते हैं? बुजुर्ग आिऽर असहाय, निरूपाय और टूटे हुए से क्यों हैं? सारी जिन्दगी जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी बुजुर्ग को अन्त तक सुकून क्यों नहीं मिल पाता है? हम भारत की बात करें तो कौन से कारक हैं जो बुजुर्गों को पीछे धकेल रहे हैं? वैश्विक होती दुनिया में दम तोड़ते संयुत्तफ़ परिवार, उपभोत्तफ़ावादी संस्कृति, प्रतियोगिता के दौर में ऽत्म होते संस्कार, गरीबी, रोजगार का आभाव, आपाधापी की संस्कृति, आत्मकेन्द्रित होता व्यत्तिफ़ आदि आदि??। दरअसल बुजुर्गों का अनुभव और उनकी संघर्ष यात्र ही वह ताकत है जिसके बल पर एक परिवार बुलंदी पर जा सकता है। लेकिन इस तर्क को मानने वालों का ग्राफ लगातार गिर रहा है। और तमाम तरह की विसंगतियां पैदा हो रही हैं। किसी शायर ने कहा है कि
‘‘उन बूढ़ी बुजुर्ग उंगलियों में
कोई ताकत तो न थी मगर
मेरा सिर झुका तो कांपते हाथों ने जमाने भर की दौलत दे दी’’
इस मर्म को समझने वालों की अब कमी हो रही है। असल में ‘‘इंसान ऽुद से दूर अब होता जा रहा है, वो संयुत्तफ़ परिवार का दौर अब ऽोता जा रहा है।’’ वृद्धों की सबसे बड़ी समस्या होती है उपेक्षा और अकेलापन। जिन परिवारों में बुजुर्गों के लिए कोई कमी नहीं भी है, वहां भी बुजुर्ग चित शान्त नहीं है। कारण वृद्धों को समय देने वाला कोई नहीं है। बुजुर्ग अपने आस-पास की तमाम जानकारी, घटनाओं को जानना समझना चाहते हैं लेकिन उनसे बात करने वाला कोई नहीं होता है। हमको चाहिए कि थोड़ा वत्तफ़ हम अपने बुजुर्गों के साथ अवश्य बैठें और उनसे विनम्रता से बात करें। बुजुर्गों को अपनी बात कहनी होती है, पूरी बात अगर कोई उनकी सुन ले तो वो संतुष्ट हो जाते हैं। जब हम छोटे थे तो हमारे मां-बाप हमारी हर सही गलत इच्छा को पूरा करने की हर संभव कोशिश करते थे। कुछ पूरी हो पाती थीं और कुछ रह भी जाती थीं। लेकिन बच्चों की जिद लगातार बनी रहती थी। क्या इस वत्तफ़ मां-बाप बच्चों को अनसुना करते हैं? नहीं न! बुजुर्गों की स्थिति भी कई बार बच्चों के समान होती है। हमें चाहिए कि बेसक हम उनकी हर जरूरत को पूरा न कर सके, लेकिन सुने अवश्य। कई
बार हमे लगता है कि बुजुर्गों की आवश्यकताएं निरर्थक हैं, क्योंकि हम उस उम्र में नहीं हैं। अतः उनकी आवश्यकताओं को नजरअंदाज करना उचित नहीं है। रिश्तेदारी, सामाजिक समारोह, घूमने फिरने आदि जगह बुजुर्गों को हम साथ ले जाने से बचते हैं। हर बार तो नहीं लेकिन कभी कभी उनसे साथ चलने का आग्रह जरूर करें। यदि वो न जाना चाहे तो कार्यक्रम से वापसी पर उन्हें समारोह के विषय में जानकारी जरूर दें। उपहार और मिठाई यदि भी दी जा सकती है। इससे वह ऽुश रहेंगे। इसके अलावा हमारे बुजुर्ग जो काम करना चाहे उनके लिए अनुकूल माहौल और व्यवस्था बनाकर देना चाहिए। पठन-पाठन की ओर भी बढ़ावा दिया जा सकता है। बुजुर्गों की रूचि के अनुरूप भोजन और घर की व्यवस्था बनाने का प्रयास करें। घर के छोटे बच्चों को बुजुर्गों के साथ ऽेलने और समय व्यतीत करने की सीऽ दें। इससे नये पुराने अनुभवों का साझा कार्यक्रम तैयार होगा। जिन घरों में बुजुर्गों का उचित सम्मान और देऽभाल नहीं होती, वहां बच्चों में भी गलत आदतें और व्यवहार पैदा होता है। यदि बुजुर्गों में परिवार के प्रति आत्मीयता की भावना बनी रहेगी तो वो अपने अंत समय तक परिवार के लिए कुछ भी त्याग करने को तत्पर रहेंगे। बुजुर्गों की परछाई भी नयी पीढ़ी के लिए जीवनदायिनी है। इसी लिए शायर मुनव्वर राणा ने कहा है कि
‘‘दवा की तरह ऽाते जाइऐ
गाली बुजुर्गों की
जो अच्छे फल हैं उनका
जायका अच्छा नहीं होता।’’