ग्राम स्वराज की मजबूती से दूर हो रहे हैं पंचायत चुनाव

पंचायत तीसरी सरकार बनने के बजाय केन्द्र और राज्य सरकार की एजेंसी बनकर रह गयी हैं, राष्ट्रीय दलों के हस्तक्षेप से गांव के चुनाव भी हो गये धन, बल, शराब और जातीय समीकरण पर केन्द्रित

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रूपेश कुमार सिंह
ऊधम सिंह नगर। उत्तराखण्ड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का एलान हो चुका है। हरिद्वार को छोड़कर शेष बारह जनपदों में 6, 11 व 16 अक्टूबर को वोट डाले जायेंगे। चुनावी बिगुल बजते ही सरगर्मियां उफान पर हैं। एकाएक कर्मठ, ईमानदार, शिक्षित, समाजसेवी, जनप्रिय और योग्य प्रत्याशियों की बाढ़ आ गयी है। कल तलक राजनीतिक दौड़ में जो शामिल न थे, सीट आरक्षित होने से उनमें भी ग्राम स्तर पर सेवा करने का कथित भाव पैदा हो उठा है। जोड़-तोड़ चरम पर है। हर कोई अपने आप को जनता का सबसे बड़ा हितैषी बताने पर तुला है। चुनाव गांव में हो रहा है, लेकिन संचालन शहर से चल रहा है। इसका कारण है गांव के चुनाव में राष्ट्रीय दलों का सीधा हस्तक्षेप। जिससे ग्राम पंचायत चुनाव भी अब धन, बल, शराब और जातीय समीकरण पर केन्द्रित हो गये हैं। पंचायतों को तीसरी सरकार के रूप में उभरना था, लेकिन वो मात्र केन्द्र व राज्य सरकार की एजेंसी बनकार रह गयी हैं। चुनाव के माध्यम से जनता को राजनीतिक चेतना से ओपप्रोत होना चाहिए था, लेकिन राजनीतिक बहस और समझदारी कहीं नहीं है। ग्राम स्वराज की मजबूती और विकास का मुद्दा चुनाव से दूर है। लोकतंत्र में चुनाव और वोट देना राजनीतिक मसला है। समझा जाता है कि चुनाव लोगों को राजनीतिक बनाता है। लेकिन आज पंचायत चुनाव से लेकर आम चुनाव तक का स्वरूप बदल गया है। लोग राजनीति और राजनैतिक दलों से नफरत करने लगे हैं। चुनाव में सक्रिय भागीदारी के साथ जिस ‘लोक’ को ‘तंत्र’ मजबूत करना था, वो आज लोकतंत्र के प्रति उदासीन हैं। सिर्फ वोट देने भर से इतिश्री नहीं हो जाती, यदि वास्तविक लोकतंत्र को जिन्दा रखना है तो नागरिकों को हर समय मुस्तैद रहना होगा। पंचायत चुनाव के माध्यम से जनता को पंचायत के मूल अर्थ, उपयोगिता, और संगठन पर बात करने की जरूरत है। आइए तीन स्तरों पर मौजूद गांव की व्यवस्था को समझने की कोशिश करते हैं। हालिया चुनाव पर भी हम लोगों के पक्ष को समझेंगे।
पंचायत का परिचय व इतिहासः पंचायत भारतीय समाज की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा रही हैं। व्यवस्था का संचालन, निर्माण और न्याय की क्षमता का परिचायक भी रही हैं पंचायतें। समाज के स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता एवं संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रति पंचायतें सहज मानी गयी हैं। महाभारत और रामायण काल से भी पहले पंचायतों का अस्तित्व था। पांच प्रतिष्ठित व्यत्तिफयों का एक निकाय ही पंचायत होती थी। इनका निश्चित क्षेत्र गांव हुआ करता था। समय गुजरता गया और पंचायतों का स्वरूप भी बदलता गया। कालान्तर से ही पंचायतों पर तमाम प्रश्न चिन्ह लगते रहे हैं। आज के समय में भी जाति के स्तर पर होने वाली पंचायतें हिंसक और मानवीय अधिकार के िखलाफ होती हैं। धीरे-धीरे ग्राम स्वराज को पंचायत का हिस्सा बनाया गया। गांधी, लोहिया सहित तमाम हस्तियों ने गांव के संगठन और विकास के लिए ग्राम पंचायतों की आवश्यक पर बल दिया। आजादी के बाद 1948 में पंचायती राज अधिनियम लागू हुआ। सबसे पहले उत्तर प्रदेश और उसके बाद 1952 में बिहार में ग्राम पंचायतों का चुनाव कराया गया। प्रारम्भ में ग्राम पंचायत का कार्यकाल 3 वर्ष, उम्मीदबार की उम्र सीमा 25 वर्ष और मतदाताओं की उम्र सीमा 21 वर्ष थी। जो बाद में बदलकर ग्राम पंचायत कार्यकाल 5 वर्ष, उम्मीदबारों की उम्र सीमा 21 वर्ष और मतदाताओं की उम्र सीमा 18 वर्ष की गयी। यह निर्धारित उम्र आज भी लागू हैं।
पंचायत का वर्तमान स्वरूपः 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सिंधवी कमेटी गठित की थी। इस कमेटी की सिफारिशों की पृष्ठभमि में 73 वें संविधान के माध्यम से भारतीय संविधान में पंचायती राज को 1950 में संविधान बनने में एवं लागू होने के समय में स्वतः ही शामिल हो जाना चाहिए था, पर वह 42 साल बाद 1993 में पूरे देश में लागू हुआ। इसके साथ ही पंचायत को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। तब से अब तक पंचायत चुनाव में लगातार बदलाव हो रहा है। मनमोहन-2 सरकार में देशभर में पंचायतों में महिला आरक्षण 50 प्रतिशत करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 243 डी में संशोधन करना पड़ा। चुनाव में सभी वर्गों की हिस्सेदारी के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था भी है। ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के तीन स्तर पर चुनाव होते हैं। आज गांव के 75 फीसदी परिवारों की आय पांच हजार रूपये प्रतिमाह से भी कम है। गांव के तकरीबन 51 करोड़ लोग दिहाड़ी करते हैं। पांच करोड़ से ज्यादा परिवार भूमिहीन हैं। इसके अलावा तमाम मसले हैं जो आज चुनाव से गायब हैं।
पंचायत चुनाव में बंद हो राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप
दिनेशपुर। सूबेदार मेजर खड़क सिंह कार्की खटोला न0 एक गांव में रहते हैं। वो कहते हैं कि गांव में भी गांव की संसद हो और आम सहमति से गांव का विकास हो, यह परिकल्पना थी पंचायत चुनाव के पीछे। लेकिन आज राष्ट्रीय दलों ने गांव का माहौल खराब कर दिय है। पंचायतें भ्रष्टाचार का शिकार हैं। चुनावी अराजकता चरम पर है। गांव के विकास को बजट का रोना रहता है। विकास कार्य का संचालन गांव के लोगों के हाथ में होना चाहिए, लेकिन उस पर नियंत्रण प्रशासनिक अधिकारियों का ही हो गया है। गांव के मुद्दे गायब हैं। खड़क सिंह कार्की कहते हैं कि उनका गांव पिछले दस साल से एक अदत सड़क के लिए भी तरस रहा है, ऐसे में किस नेता, विधायक पर यकीन करें? दुर्गापुर न0 दो निवासी विक्रम जीत सिंह प्रगतिशील किसान हैं। वे कहते हैं कि पंचायत चुनाव में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इससे गांव में तनाव बढ़ता है और नफरत लड़ाई का रूप ले लेती है। शिक्षित लोगों को चुनाव में सामने आना चाहिए। गांव का सांगठनिक ढांचा होना चाहिए, जो स्वयं सारे काम की निगरानी रखे। बुनियादी सुविधाएं भी गांव में नहीं हैं, लेकिन चुनाव हर पांच साल में हो रहे हैं। गांव के लोगों को क्षेत्र के विकास के लिए सजग होना होगा। मीट-शराब का चलन गांव के नौजवानों को नशे का आदी बना रहा है। किसान की समस्या सुनने वाला कोई नहीं है। ग्राम सभा के अधिकार सीमित हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि गांव को विकसित करके ही देश का सफल संचालन संभव है। चक्कीमोड़ निवासी दुकानदार कैलाश शर्मा कहते हैं कि पंचायत चुनाव में भी पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। चुनाव मुद्दों पर नहीं बल्कि सांठ-गांठ पर हो रहे हैं। महिलाओं की भागीदारी बढ़ना और शिक्षा व दो बच्चों का प्रबधान लाना अच्छा कदम है। सरकारी योजनाएं गांव तक नहीं पहुंचती हैं। गांव अभी भी पिछड़े और बदहाल हैं। पंचायत चुनाव से गांव को मजबूत किया जा सकता है, बशर्ते अच्छे लोगों के पास नेतृत्व आये। उन्होंने कहा कि पंचायतों के पास कोई नया मसौदा नहीं है जिस कारण गांव पिछड़ रहे हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि गांव में चुनाव की दशा और दिशा भी बिगड़ चुकी है। जिन गांव को सत्ता का केन्द्र होना था, वो पिछड़ गये हैं। छोटे चुनाव में भी नेता दलों के पोस्टर-बैनर लेकर मैदान में कूद रहे हैं। लेकिन गांव के विकास का रोल मॉडल क्या हो, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

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