जख्मी जांबाजों के हौसले को सलाम,अब बेटे भी कर रहे देश की रक्षा
भारत-पाक की जंग में जख्मी हुए थे कुमाऊं रेजीमेंट के जांबाज खीलानंद और किशन सिंह
हल्द्वानी । वर्ष 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान कई जांबाजों ने देश की रक्षा करते हुए शहादत दी तो कई जवानों ने जख्मी होकर युद्ध लड़ा था। सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद भी उनके हौंसले बुलंद हैं। दिव्यांग आनरेरी कैप्टन खीलानंद चिलकोटी अब नौजवानों को देश सेवा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वहीं दिव्यांग सिपाही किशन सिंह ने लोगों को सेना से जुडने के साथ ही अपने बेटे को भी सैनिक बनाया। उनके बेटे सेना में सूबेदार के पद पर तैनात होकर देश सेवा कर रहे हैं। युद्ध के दौरान की उनकी और भारतीय सेना की वीर गाथा आज भी रोमांचित कर देती है। मूल रूप से ग्राम चिलकोट में रहने वाले खीलानंद चिलकोटी का चयन दो मार्च 1971 को अल्मोड़ा में आयोजित सेना भर्ती में हुआ था। कुमाऊं रेजीमेंट रानीखेत में प्रशिक्षण के बाद 20 अक्टूबर 1971 को खीलानंद को 4 कुमाऊं में भेज दिया गया। भारत-पाक युद्ध शुरू होते ही उनकी पलटन को असम-पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर तैनात कर दिया गया। नवंबर में पलटन को पूर्वी पाकिस्तान में कूच कराया गया। तीन दिसंबर को युद्ध की घोषणा होते ही उनकी पलटन को भी हमले का आदेश मिल गया। आनरेरी कैप्टन खीलानंद चिलकोटी बताते हैं कि उनकी पलटन को शमशेर नगर पर हमला करना था। पलटन आगे बढ़ रही थी और पाक सेना ने उन्हें रोकने के लिए तोपों से बमबारी शुरू कर दी। इस हमले में भारतीय सेना के 41 जवान और अफसर घायल हो चुके थे। इस घायलों में खीलानंद सबसे छोटे थे। उनके शरीर का पूरा दाहिना हिस्सा तोप के गोले से झुलस गया था। कंपनी कमांडर मेजर महेंद्र की एक आंख ही निकल गयी थी। सभी का सेना अस्पताल में इलाज हुआ और स्वस्थ होने पर अस्पताल से छुट्टðी मिली। मूल रूप से बागेश्वर जनपद के ग्राम महोली, सनेती निवासी किशन सिंह के बड़े भाई हरक सिंह वर्ष 1963 में सेना में रानीखेत में सेवारत थे। इसी दौरान वह भाई से मिलने रानीखेत गए तो सोमनाथ मैदान में भर्ती चल रही थी। भर्ती देख किशन सिंह मैदान में चले गए। नाप-जोख व मेडिकल में सफल होने के बाद उन्हें प्रशिक्षण के लिए रानीखेत भेज दिया गया। 1964 में रानीखेत से पास आउट होने पर उन्हें 14 कुमाऊं में भेजा गया। कुछ समय बाद ही 1965 का भारत-पाक युद्ध छिड़ गया। उनकी पलटन को भी हमले का आदेश मिला। दूसरी ओर से जमकर बमबारी और फायरिंग हो रही थी। एक गोली सीने से सटकर गुजरी तो खरोंच आ गयी। इससे किशन सिंह का हौंसला और बढ़ गया। सुबह तक पाकिस्तानी सेना मोर्चे छोड़कर भाग गयी थी। किशन सिंह समेत तीन सिपाही पाकिस्तानी सेना के मोर्चे में घुस गए। कुछ देर बाद वह एक-एक कर निकल रहे थे तो तीनों साथियों के जाते ही बमबारी फिर शुरू हो गयी। किशन सिंह अकेले ही मोर्चे में फंस गए। एक बम का टुकड़ा लगने से वह बेहोश हो गए। होश आने तक धूप खिल गयी थी। इसके बाद वह धीरे-धीरे कंपनी तक पहुंचे और अस्पताल में उपचार कराया। दिल्ली में आपरेशन के बाद किशन सिंह स्वस्थ होकर डयूटी पर चले गए। वर्ष 1971 में किशन सिंह की पलटन पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर थी। किशन सिंह बताते हैं कि युद्ध के दौरान बरबारी में उनके साथ आगे बढ़ रहे लांस नायक प्रकाश लाल व सिपाही लाल सिंह बमबारी में शहीद हो गए और उनका दाहिना हाथ टूट गया। लखनऊ सेना अस्पताल में उनके हाथ का आपरेशन हुआ। किशन सिंह के बेटे भी भारतीय सेना में सूबेदार के पद पर देश सेवा कर रहे हैं।