भक्ति में लगन लगी और दस साल की उम्र में छो़ड दी सारी सुख सुविधाएं

0

रूद्रपुर। जैन मंदिर में पधारे जैन मुनि रोहित मुनि महाराज एवं श्रेयांस मुनि जी महाराज ने दस वर्ष की उम्र ही सारे सुऽ और ऐश्वर्य त्याग दिये। जैन संत रोहित मुनि महाराज के पिता महावीर प्रसाद उस समय बहुत बड़े जमीदार थे। जबकि श्रेयांस मुनि महाराज के पिता एक बड़े व्यापारी थे। घर में पैसे की कमी नहीं, ऐशो-आराम का संकट नहीं—लेकिन जब आत्मा में अध्यात्म का अलऽ जग जाए तो सुऽ-सुविधा-संपदा बेमतलब हो जाती है। दस साल की छोटी सी उम्र में रोहित मुनि जी एवं श्रेयांस मुनि जी महाराज ने अपनी जिंदगी अध्यात्म को अर्पित करने का प्रण ले लिया। रोहित मुनि महाराज का जन्म हरियाणा के गुमाना गांव में हुआ था। जब वह दस वर्ष के थे तब गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज एक बार गांव में प्रवचन करने के लिए आये। वहां पहली बार में गुरूदेव का प्रवचन सुन रोहित मुनि महाराज इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जैन संतों की शरण में जाकर सन्यासी बनने का फैसला ले लिया। उस समय वह पांचवी कक्षा में पढ़ते थे। परिवार के समक्ष जब बालक रोहित ने जैन गुरूओं के साथ जाकर जैन धर्म की शिक्षा लेने की जिद की तो माता पिता ने भी उसकी इच्छा नहीं टाली और उन्हें गुरूदेव सुदर्शन लाल जी महाराज के साथ भेज दिया। पांच भाईयों में चौथे नंबर के रोहित मुनि महाराज ने इसके बाद चार वर्षों तक जैन गुरूओं के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसके बाद वर्ष 1994 में सोनीपत में दीक्षा लेकर सन्यासी बन गये। इसके साथ ही उन्होंने घर परिवार सब त्याग दिया और पूरा संसार उनके लिए घर हो गया। कुछ इसी तरह का परिवर्तन श्रेयांस मुनि महाराज के जीवन में भी अचानक आया। राजाऽेड़ी हरियाणा निवासी जाट परिवार के चौधरी लहना सिंह मलिक एवं वेद देवी के घर में जन्मे श्रेयांश मुनि महाराज ने भी दस वर्ष की उम्र में सन्यास लेने का निर्णय लेकर परिवार को चौंका दिया। उस समय उनके घर के पास ही जैन स्थानक था और वहां पर प्रवचन सुनने के लिए वह अकसर जाया करते थे। तभी एक दिन जैन गुरूओं का प्रवचन सुनकर उनका हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने घर बार छोड़कर सन्यास लेने का मन बना लिया। करीब छह वर्षों तक राम प्रसाद जी महाराज के सानिध्य में जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने 16 वर्ष की आयु में दीक्षा ली और सन्यासी बन गये। तब से वह देश के कई हिस्सों में भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और लोगों को सत्य और अंहिसा की राह पर चलने की सीऽ दे रहे हैं। जैन मुनि श्रेयांस जी महाराज का कहना है कि जैन धर्म में सन्यास ईश्वर बनने की यात्र है। उन्होंने कहा कि वास्तव में कोई भी इनसान भगवान बन सकता है। भगवान महावीर भी पहले एक साधारण इनसान ही थे उन्होंने अपनी साधना से ऽुद को भगवान बनाया। इसीलिए वह पूजनीय हो गये। उन्होंने कहा कि कि कोई भी धर्म गलत राह नहीं दिऽाता। हर धर्म में सत्य की राह पर चलने की सीऽ दी गयी है। साथ ही कर्म का सिद्धांत भी जीवन में अहम स्थान रऽता है। जो कर्म के सिद्धांत को समझ जाये वह पुरूष से महापुरूष बन सकता है। तपस्वी जैन मुनियों ने कहा कि वैभव कितना ही महान क्यों न हो पर वह तप अैर त्याग से ज्यादा कभी भी महान नहीं हो सकता। भले ही सिकंदर के पास महावीर से हजार गुना ज्यादा वैभव था पर वह भगवान महावीर से कभी भी महान नहीं बन सका। उन्होंने कहा कि समाज में समृद्धि का सम्मान होता है लेकिन पूजा हमेशा त्याग की होती है। आज का इंनसान इच्छाओं और वासनाओं के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है। इंसान के पास सब कुछ है पर मन में तृप्ति का नामोनिशान नहीं है। सबसे बड़ा तप इच्छाओं का त्याग है। जीवन में तपस्या का संस्कार जरूर होना चाहिए। जो तपस्या करता है वह अनेक समस्याओं से स्वतः बच जाता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर उनके साथ होते है जो तन मन और चेतना को तपाते हैं, जो तपता है,जपता है,भजता है उसके सामने भगवान भी झुकते हैं। साथ ही जीवन में अच्छे कर्म भी जरूरी हैं। अच्छे कर्म व्यत्तिफ़ को अच्छे रास्ते पर अपने आप ले आते हैं। कोई भी धर्म गलत रास्ता नहीं दिऽाता। हर व्यत्तिफ़ में भगवान है। जरूरत है सच्चाई और नेकी के रास्ते पर चलने की। हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, किसी की वस्तु मत चुराओ, किसी के साथ गलत मत करो और केवल बटोरो मत दुनिया को भी दो। यही जीवन का सार है। जिस समय भी आपने अच्छा काम किया समझो उस समय आपका कदम ईश्वर की ओर बढ़ गया। जब भी आपका कदम बुराई की ओर बढ़ा तभी ईश्वर आप से दूर होते जाते हैं। उन्होंने कहा कि हर इंसान भगवान बनने की क्षमता रऽता है। जिस तरह से आईएएस बनने के लिए जरूरी नहीं कि वह ऊंची जाति का हो उसी तरह ईश्वर बनने के लिए भी जाति और धर्म का कोई बंधन नहीं है। कोई भी व्यत्तिफ़ इनसान से भगवान बन सकता है बशर्तें कि उसके कर्म अच्छे हों और उसकी सोच अच्छी हो। इसी को परम सत्ता का सिद्धांत कहा जाता है। यानि जैसा हम कर्म करेंगे वैसा फल भोगना होगा। दूसरा सिद्धांत यह है कि किसी भी व्यत्तिफ़ को सौ प्रतिशत गलत मत समझो। हर व्यत्तिफ़ में कुछ न कुछ अच्छाई है। बुरे व्यत्तिफ़ में भी कुछ न कुछ सुधार की संभावना होती है।

Leave A Reply

Your email address will not be published.