जैन मुनियों का त्याग और समर्पण..21वीं सदी में भी भौतिकवादी वस्तुओं से दूर हैं जैन संत

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 – जगदीश चन्द्र
रूद्रपुर। शहर के जैन स्थानक में पधारे तपस्वी जैन संत रोहित मुनि जी महाराज एवं श्रेयांस मुनि जी महाराज पिछले करीब तीन माह से शहर के श्रद्धालुओं में श्रद्धा और भत्तिफ़ की अलख जगाकर उन्हें सत्य और अंहिसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे रहे हैं। रोजाना कठोर तप करके भी इन तपस्वी संतों के चेहरे पर जरा भी शिकन नजर नहीं आती। आज जहां इंसान भौतिकता की दौड़ में हर काम मशीन से लेना चाहता है वहीं दूसरी तरफ 21वीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में भी जैन संत कोई भौतिक वस्तु का प्रयोग नहीं करते। यहां तक अगले पहर का खाना तक वह संग्रह नहीं कर सकते। उनकी दिनचर्या के नियम इतने कठिन हैं कि आम आदमी सोचकर भी अचंभित हो जाता है। एक साक्षात्कार के दौरान उत्तरांचल दर्पण ने जैन मुनियों की दिनचर्या और उनके जीवन से जुड़े रहस्यों के बारे में जानने का प्रयास किया। दिखने में बेहद सरल और साधारण लगने वाले जैन मुनियों का जीवन एक कठोर तप है। जितना त्याग जैन मुनि अपनी एक दिन की नियमित दिनचर्या में करते हैं, उतना तप साधारण मानव पूरे जीवन में नहीं कर पाते। जैन मुनियों के त्याग और समर्पण के बारे में आज के भौतिकवादी युग में लोग सोचकर भी हैरान हो जाते हैं। जैन मुनियों के खाने पीने से लेकर सोने जागने और रहन सहन के लिए कड़े नियम हैं। वे सूर्याेदय से सूर्यास्त तक ही भोजन या जल ग्रहण कर सकते हैं। हालाकि जैन मुनियों को दिन में तीन बार भोजन करने की इजाजत है। लेकिन अधिकतर जैन मुनि एक या दो बार ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन भी भिक्षा लेकर ही किया जा सकता है।ब्रम्ह मुहूर्त यानि तड़के 3-30 बजे से जैन मुनियों की दिनचर्या शुरू हो जाती है। जैन मुनियों के लिए स्नान वर्जित हैं,न तो वह कोई साबुन, क्रीम या पेस्ट आदि इस्तेमाल करते हैं और न ही सौंदर्य का कोई अन्य सामान। इसके बावजूद उनके चेहरे और शरीर की त्वचा की चमक देखते ही बनती हैं। वस्त्र के रूप में शरीर ढकने के लिए सिर्फ सूती की धोती का ही प्रयोग उन्हें करना होता है। सुबह साढ़े तीन बजे उठने के बाद नित्य कर्म, उसके बाद एक घंटे तक स्वाध्याय प्रतिक्रमण उसके बाद सामूहिक प्रार्थना करने के बाद करीब साढ़े छह बजे सुबह के भोजन के लिए भिक्षा पर निकलने का समय होता है। एक बार के भोजन के लिए खाना भी एक या दो ग्रहस्थों के घर से नहीं बल्कि कई घरों से थोड़ा थोड़ा पका हुआ भोजन लिया जाता है। जैन संतों को स्वाद से कोई मतलब नहीं और ना ही अपना पूरा भोजन वह किसी एक ही घर से ले सकते है। पेट भरने के लिए जैसा भी भोजन दो चार घरों से मिले उसे लेने के बाद जैन मुनि ठीक 8 बजे मंगल प्रवचन के लिए सभागार में पहुंचते हैं। सवा घंटे के प्रवचन में जैन मुनि अमृत वर्षा से लोगों को निहाल करके उन्हें सांसारिक मोह माया से दूर करने का प्रयास तो करते ही हैं साथ ही लोगों को सत्य अंहिसा के रास्ते पर चलने की प्रेरणा भी देते हैं। प्रवचन के बाद दोपहर तक धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद फिर दोपहर के भोजन के लिए पुनः भिक्षा लेने का समय होता है और फिर जैन मुनि भिक्षा लेकर दोपहर के भोजन का इंतजाम करते हैं। जैन मुनि कहते हैं कि उनके पास न छाता है न खाता। न तो वह धन संग्रह कर सकते हैं और न ही कोई खाद्य पदार्थ या सांसारिक वस्तु। इसीलिए वह कोई भी चढ़ावा आदि स्वीकार नहीं करते। सूर्यास्त के बाद एक बूंद पानी तक उन्हें पीने की इजाजत नहीं है। चाहे शरीर स्वस्थ हो या फिर वह कितने ही बिमार हों। कितनी भी गर्मी क्यों न हो सूर्यास्त के बाद जल किसी भी हालत में वह नहीं पी सकते। भीषण गर्मी में जहां लोग एसी में भी गर्मी महसूस करते हैं वहीं जैन मुनियों के लिए यह सब सुविधाएं बेकार है। जैन मुनि धरती पर ही सोते हैं और किसी भी इलेक्ट्रोनिक उपकरण का प्रयोग नहीं करते। पंऽे या एसी तो दूर, टीवी और यहां तक कि मोबाइल का प्रयोग भी जैन मुनि नहीं कर सकते। शाम ढलने के बाद लाईट या मोम बत्ती का प्रयोग भी उनके लिए वर्जित है। वैसे तो उनके लिए कई और भी नियम हैं। महिलाओं के अलावा कोई भी लड़की यहां तक कि एक साल की बच्ची भी उन्हें छू नहीं सकती। जिस हॉल में जैन संत रहते हैं वहां पर सूर्यास्त के बाद किसी भी महिला या बच्ची का भी प्रवेश वर्जित रहता है। इतने कड़े नियमों के बावजूद जैन मुनि हमेशा शांतचित्त नजर आते हैं उनके चेहरे पर हमेशा आनन्द और संतोष का भाव नजर आता है। क्रोध से तो वह कोसों दूर हैं। कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो क्रोध,लोभ और लालच जैसी बुराईयां उनके आस पास भी नहीं फटकती। इसी लिए उनके सानिध्य में आने वाला हर शख्स शांति का अनुभव करता है। जैन मुनि कहते हैं कि वह स्वाद के लिए भोजन नहीं करते बल्कि वह सिर्फ धर्म साधना के लिए ही भोजन करते हैं। अपनी दिनचर्या और अपने किसी भी कार्य के लिए जैन संत किसी भी व्यत्तिफ़ पर निर्भर नहीं रहते। न तो वह कोई चढ़ावा लेते हैं और न ही अपनी कोई सुविधा की वस्तु। वह अपने सारे काम खुद करते हैं किसी पर निर्भर नहीं रहते। यात्र काल में जहां भी जाना हो अपनी जरूरत का सामान खुदही अपने कंधों पर लेकर जाते हैं। वर्ष में आठ माह तक वह पैदल भ्रमण कर धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं। भ्रमण के दौरान प्रतिदिन 25 से 50 किमी का सफर पैदल ही नंगे पांव तय किया जाता है। वह भी सूर्यास्त से पहले। जबकि चार माह तक किसी एक स्थान पर रहकर चातुर्मास किया जाता है। इस अवधि में जैन संत एक ही शहर में रहकर प्रवचन करते हैं। अपनी दिनचर्या के बारे में बताते हुए रोहित मुनि महाराज कहते हैं कि उन्हे सांसारिक सुखों से कोई सरोकार नहीं है। उनकी सारी क्रियाएं आत्मा से संबंधित हैं। क्रोध,लोभ, मोह, माया, राग-द्वेष इन पर विजय प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। जितना यह कम होगा उतना ही व्यत्तिफ़ ऊपर उठता जाएगा। सबसे पहले मन को जीतना चाहिए। उन्होंने कहा कि जैन धर्म अंध विश्वासों पर कुठाराघात करता है। अंध विश्वास व्यत्तिफ़ को अंधकार में ले जाने का काम करते हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि आज का इनसान सभी सुख सुविधाएं होकर भी तृप्त नहीं है। इसका कारण यह है कि उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं इसीलिए जीवन में भटकाव है। जिस दिन ज्ञान प्राप्त हो जाएगा उस दिन भटकाव भी समाप्त हो जाएगा। एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कर्म बड़ा है और भाग्य छोटा। कर्म से ही भाग्य बनता है। कर्म से इनसान भाग्य भी बदल सकता हैं। उन्होंने कहा कि ग्रहस्थ में रहकर भी व्यत्तिफ़ को मोक्ष मिल सकता है। लेकिन इसके लिए ग्रहस्थ को जैसे कमल में कीचड़ रहता है वैसे ही रहना पड़ता है। व्यत्तिफ़ की आत्मा हमेशा जाग्रत होनी चाहिए। तभी वह अच्छा और बुरा समझ सकता है। साधू के लिए साधना करना आसान है ग्रहस्थ बनके साधना करना बहुत कठिन है। उन्होंने कहा कि ग्रहस्थ व्यत्तिफ़ को सिर्फ अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह करना चाहिए उनमें लिप्त नहीं होना चाहिए। बेटा अपनी जिम्मेदारियां निभाये और पिता अपनी। दोनों जिम्मेदारियों से बचेंगे तो दोनों के लिए नुकसान है। उन्होंने कहा भागदौड़ भरी जिंदगी में एक घंटा भी ईश्वर के ध्यान में समय लगाया तो जीवन का उद्धार हो सकता है।

भक्ति में लगन लगी और दस साल की उम्र में छो़ड दी सारी सुख सुविधाएं
रूद्रपुर। जैन मंदिर में पधारे जैन मुनि रोहित मुनि महाराज एवं श्रेयांस मुनि जी महाराज ने दस वर्ष की उम्र ही सारे सुख और ऐश्वर्य त्याग दिये। जैन संत रोहित मुनि महाराज के पिता महावीर प्रसाद उस समय बहुत बड़े जमीदार थे। जबकि श्रेयांस मुनि महाराज के पिता एक बड़े व्यापारी थे। घर में पैसे की कमी नहीं, ऐशो-आराम का संकट नहीं…लेकिन जब आत्मा में अध्यात्म का अलख जग जाए तो सुख-सुविधा-संपदा बेमतलब हो जाती है। दस साल की छोटी सी उम्र में रोहित मुनि जी एवं श्रेयांस मुनि जी महाराज ने अपनी जिंदगी अध्यात्म को अर्पित करने का प्रण ले लिया। रोहित मुनि महाराज का जन्म हरियाणा के गुमाना गांव में हुआ था। जब वह दस वर्ष के थे तब गुरूदेव श्री सुदर्शन लाल जी महाराज एक बार गांव में प्रवचन करने के लिए आये। वहां पहली बार में गुरूदेव का प्रवचन सुन रोहित मुनि महाराज इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जैन संतों की शरण में जाकर सन्यासी बनने का फैसला ले लिया। उस समय वह पांचवी कक्षा में पढ़ते थे। परिवार के समक्ष जब बालक रोहित ने जैन गुरूओं के साथ जाकर जैन धर्म की शिक्षा लेने की जिद की तो माता पिता ने भी उसकी इच्छा नहीं टाली और उन्हें गुरूदेव सुदर्शन लाल जी महाराज के साथ भेज दिया। पांच भाईयों में चैथे नंबर के रोहित मुनि महाराज ने इसके बाद चार वर्षों तक जैन गुरूओं के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसके बाद वर्ष 1994 में सोनीपत में दीक्षा लेकर सन्यासी बन गये। इसके साथ ही उन्होंने घर परिवार सब त्याग दिया और पूरा संसार उनके लिए घर हो गया। कुछ इसी तरह का परिवर्तन श्रेयांस मुनि महाराज के जीवन में भी अचानक आया। राजाखेड़ी हरियाणा निवासी जाट परिवार के चैधरी लहना सिंह मलिक एवं वेद देवी के घर में जन्मे श्रेयांश मुनि महाराज ने भी दस वर्ष की उम्र में सन्यास लेने का निर्णय लेकर परिवार को चैंका दिया। उस समय उनके घर के पास ही जैन स्थानक था और वहां पर प्रवचन सुनने के लिए वह अकसर जाया करते थे। तभी एक दिन जैन गुरूओं का प्रवचन सुनकर उनका हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने घर बार छोड़कर सन्यास लेने का मन बना लिया। करीब छह वर्षों तक राम प्रसाद जी महाराज के सानिध्य में जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने 16 वर्ष की आयु में दीक्षा ली और सन्यासी बन गये। तब से वह देश के कई हिस्सों में भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और लोगों को सत्य और अंहिसा की राह पर चलने की सीख दे रहे हैं। जैन मुनि श्रेयांस जी महाराज का कहना है कि जैन धर्म में सन्यास ईश्वर बनने की यात्रा है। उन्होंने कहा कि वास्तव में कोई भी इनसान भगवान बन सकता है। भगवान महावीर भी पहले एक साधारण इनसान ही थे उन्होंने अपनी साधना से खुद को भगवान बनाया। इसीलिए वह पूजनीय हो गये। उन्होंने कहा कि कि कोई भी धर्म गलत राह नहीं दिखाता। हर धर्म में सत्य की राह पर चलने की सीख दी गयी है। साथ ही कर्म का सिद्धांत भी जीवन में अहम स्थान रखता है। जो कर्म के सिद्धांत को समझ जाये वह पुरूष से महापुरूष बन सकता है। तपस्वी जैन मुनियों ने कहा कि वैभव कितना ही महान क्यों न हो पर वह तप अैर त्याग से ज्यादा कभी भी महान नहीं हो सकता। भले ही सिकंदर के पास महावीर से हजार गुना ज्यादा वैभव था पर वह भगवान महावीर से कभी भी महान नहीं बन सका। उन्होंने कहा कि समाज में समृद्धि का सम्मान होता है लेकिन पूजा हमेशा त्याग की होती है। आज का इंनसान इच्छाओं और वासनाओं के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है। इंसान के पास सब कुछ है पर मन में तृप्ति का नामोनिशान नहीं है। सबसे बड़ा तप इच्छाओं का त्याग है। जीवन में तपस्या का संस्कार जरूर होना चाहिए। जो तपस्या करता है वह अनेक समस्याओं से स्वतः बच जाता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर उनके साथ होते है जो तन मन और चेतना को तपाते हैं, जो तपता है,जपता है,भजता है उसके सामने भगवान भी झुकते हैं। साथ ही जीवन में अच्छे कर्म भी जरूरी हैं। अच्छे कर्म व्यत्तिफ को अच्छे रास्ते पर अपने आप ले आते हैं। कोई भी धर्म गलत रास्ता नहीं दिखाता। हर व्यत्तिफ में भगवान है। जरूरत है सच्चाई और नेकी के रास्ते पर चलने की। हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, किसी की वस्तु मत चुराओ, किसी के साथ गलत मत करो और केवल बटोरो मत दुनिया को भी दो। यही जीवन का सार है। जिस समय भी आपने अच्छा काम किया समझो उस समय आपका कदम ईश्वर की ओर बढ़ गया। जब भी आपका कदम बुराई की ओर बढ़ा तभी ईश्वर आप से दूर होते जाते हैं। उन्होंने कहा कि हर इंसान भगवान बनने की क्षमता रखता है। जिस तरह से आईएएस बनने के लिए जरूरी नहीं कि वह ऊंची जाति का हो उसी तरह ईश्वर बनने के लिए भी जाति और धर्म का कोई बंधन नहीं है। कोई भी व्यत्तिफ इनसान से भगवान बन सकता है बशर्तें कि उसके कर्म अच्छे हों और उसकी सोच अच्छी हो। इसी को परम सत्ता का सिद्धांत कहा जाता है। यानि जैसा हम कर्म करेंगे वैसा फल भोगना होगा। दूसरा सिद्धांत यह है कि किसी भी व्यत्तिफ को सौ प्रतिशत गलत मत समझो। हर व्यत्तिफ में कुछ न कुछ अच्छाई है। बुरे व्यत्तिफ में भी कुछ न कुछ सुधार की संभावना होती है।
जैन मुनियों का केश लोच देख भर आती हैं आंखें
रूद्रपुर। जैन मुनि अपने सिर और दाढ़ी के बाल काटने के लिए कैंची या उस्तरे का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि वर्ष में दो बार हाथों से ही सिर के बाल और दाढ़ी और मंूछ के बालों को उखाड़ा जाता है। हालाकि यह कार्य वह सार्वजनिक रूप से नहीं करते लेकिन कुछ सेवकों को विशेष शर्त पर केश लोच देखने की इजाजत मिल जाती है। पिछले तीन माह से जैन स्थानक में चल रहे चातुर्मास कार्यक्रम के दौरान यहां पर भी रोहित मुनि जी महाराज और श्रेयांश मुनि महाराज ने केश लोच के दौरान अपने बाल उखाड़े तो वहां मौजूद अनुयायियों के आंसू छलक आये। लेकिन जैन मुनियों के चेहरे पर दर्द और तनाव नहीं दिखाई दिया। जैसे उन्होंने दर्द को भी जीत लिया हो। केस लोच के साक्षी बने जैन समाज के प्रधान प्रवीन जैन ने बताया कि यदि त्याग और तप देखना है तो जैन मुनियों को देखना चाहिए। उन्होंने बताया कि केश लोच के दौरान उनकी स्वयं की आंखें नम हो गयी लेकिन तपस्वी जैन मुनि सहजता से अपने बालों को उखाड़ते रहे। उन्होंने बताया कि जैन मुनि साल में 2 बार केश लोंच करते हैं। वह अपने शरीर से बाल उस्तरे से नही साफ करते। बल्कि अपने हाथ से उखाड़ते हैं।
करोड़पति के बेटे ने लिया सन्यासी बनने का प्रण
रूद्रपुर। पंजाब के मानसा निवासी रेडिमेड व्यवसायी सुभाष बंसल का बेटा रजत जल्द ही सन्यासी बन जाएगा। 15 वर्षीय रजत पिछले सात वर्ष से जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण कर रहा है। इन दिनों वह चातुर्मास कार्यक्रम में रोहित मुनि जी महाराज और श्रेयांस मुनि जी महाराज के साथ शिक्षा ग्रहण करने रूद्रपुर के जैन स्थानक में पहुंचा है। वैरागी रजत को करीब एक वर्ष बाद दीक्षा मिल जाएगी और एक भव्य समारोह में उसे सन्यासी बनाने का ऐलान किया जाएगा। जैन सन्यासी बनने की दिशा में आगे बढ़ा रजत अपने फैसले से खुश है। रजत ने बताया कि सात वर्ष पहले हैपेटाईटिस रोग से उनकी हालत बिगड़ गयी थी। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। घर वाले भी उम्मीद छोड़ चुके थे। तभी संयोग से तपस्वी जैन संत रोहित मुनि जी महाराज वहां आये थे तो परिजन उनके पास ले गये। उनके आशीर्वाद से जल्द ही उनकी बिमारी दूर हो गयी और वह बिल्कुल स्वस्थ हो गये। रजत ने बताया कि गुरू जी श्री रोहित मुनि जी महाराज के आशीर्वाद से ही उन्हें नया जीवन मिला इसलिए उन्होंने अपना जीवन गुरू के सानिध्य में ही बिमाने का फैसला लिया। रजत का कहना है कि वैसे भी संसार के अंदर जो भी प्राप्त वस्तुएं हैं सब एक दिन चली जाएंगी। साथ कोई नहीं रहेगा। ज्ञान ही ऐसी ही चीज है जो साथ रहेगा। यही सोचकर उन्होंने गुरू की आज्ञा से ही जीवन व्यतीत करने का निर्णय लिया है।
रूद्रपुर में दूसरी बार आयोजित हुआ है जैन संतों का चातुर्मास
रूद्रपुर। जैन धर्म में विशेष रूप से मनाये जाने वाले चातुर्मास कार्यक्रम में जैन संतों का पदार्पण रूद्रपुर में दूसरी बार हुआ है। चातुर्मास में जैन संत चार माह तक एक ही स्थान पर रहकर जैन धर्म का प्रचार प्रसार और प्रवचन करते हैं। कहा जाता है कि जिस धरती पर जैन संत चातुर्मास के लिए पधारते हैं वह धरती धन धान्य से परिपूर्ण हो जाती है। रूद्रपुर के जैन स्थानक में पहली बार वर्ष 2001 में जैन संतों का चातुर्मास हुआ था। तब यहां पूज्य गुरूदेव कृपानाथ भोले भंडारी श्री शांति मुनि जी महाराज और पंडित रत्न श्री जय मुनि जी महाराज और सेवाभावी आदिश मुनि जी महाराज महज आठ दिनों के लिए पधारे थे लेकिन अचानक श्री शांति मुनि जी महाराज को दिल का दौरा पड़ा और उनकी तबियत बिगड़ गयी। जैन धर्म के अनुसार जैन संतों को बिमार पड़ने पर चिकित्सक के पास जाने की भी इजाजत नहीं है। लिहाजा रूद्रपुर बिलासपुर और दिल्ली ने खुद यहां पहुंचकर उनका उपचार किया। यहां पर जैन समाज के सेवाभाव से तपस्वी जैन संत इतने प्रसन्न हुए कि जैन संतों ने चातुर्मास यहीं पर करने का निर्णय लिया और 8 दिन की जगह उन्होंने यहां पर 8 माह बिताये। यहां जैन समाज के लोगों का सेवाभाव देखकर उसके बाद कई जैन संत समय समय पर भ्रमण के लिए आये और इस साल दूसरी बार जैन स्थानक में चातुर्मास कार्यक्रम में जैन संतों का पदार्पण हुआ है। जैन समाज के प्रधान प्रवीन जैन ने बताया कि जैन गुरूओं का चातुर्मास के लिए यहां आना रूद्रपुर ही नहीं बल्कि पूरे उत्तराखण्ड के लिए सौभाग्य की बात है। उन्होंने बताया कि जुलाई माह से शुरू हुआ चातुर्मास कार्यक्रम अभी करीब सवा माह और चलना है इसके बाद जैन संत पंजाब के लिए रवाना होंगे। चातुर्मास कार्यक्रम को तीन माह पूरे होने जा रहे हैं। इस बीच जैन संतों से आशीर्वाद लेने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री सहित कई मंत्री, सांसद, नेता प्रतिपक्ष,विधायक वरिष्ठ नेता, वरिष्ठ अधिकारी सहित तमाम गणमान्य लोग पहुंच चुके हैं। साथ ही दूसरे प्रदेशों से भी बड़ी संख्या में लगातार भत्तफों के आने का सिलसिला जारी है। चातुर्मास के उपलक्ष्य में दिन में तीनों टाईम जैन स्थानक में श्रद्धालुओं के लिए भंडारा आयोजित किया जा रहा है।

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