राम मंदिर के निमंत्रण पर सियासी महाभारत,कांग्रेस ने बनायी दूरी !
कांग्रेस ने राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम के आमंत्रण को ठुकरा कर अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम कर दिया है। इसका हश्र वहीं होगा, जो भगवान राम ने श्रीलंका पर आक्रमण करने से पहले शांति समझौते के प्रस्ताव को लेकर अंगद को लंका भेजा था। लेकिन अंहकारी रावण ने राम के प्रस्ताव को नकार कर अपनी मौत के साथ सत्ता का पराभव तो झेला ही, कुल का नाश भी कर बैठा। कांग्रेस ने भारतीय धर्म, इतिहास और संस्कृति के गौरव राम मंदिर उद्घाटन में शामिल नहीं होने का निर्णय लेकर बड़ी भूल की है। भारत के किसी भी राजनीतिक दल को नहीं भूलना चाहिए कि वे राम ही थे, जिन्होंने उत्तर से दक्षिण और कृष्ण ने पूरब से पश्चिम की यात्रा करके भारत को धार्मिक और सांस्कृतिक एकरूपता देने का अविस्मरणीय कार्य किया था। इसी एकरूपता की परंपरा के चलते आज भी भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता कायम है। राम की इसी महिमा को समझते हुए संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर और इस समिति के सदस्यों ने संविधान के प्रथम पृष्ठ पर राम दरबार का प्रकाशन किया हुआ है। क्योंकि आंबेडकर जानते थे कि संविधान की संहिताएं तो एक इबारत भर हैं, इनका पालन राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रेरक अनुशासन से ही संभव है। लेकिन अपने ही पतन की ओर बढ़ रही कांग्रेस तुष्टिकरण की राजनीति से आज भी उभर नहीं पा रही है। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने सिद्ध कर दिया है कि मुसलमान वोटों के बिना भी केंद्र और राज्य में सरकार बनाई जा सकती है। बावजूद सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में पार्टी नेता अधीर रंजन चौधरी इस पुनीत व भव्य आयोजन में भागीदारी नहीं करेंगे। असमंजस के दौर से गुजर रही कांग्रेस ने इस पूरे कार्यक्रम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का आयोजन बताते हुए किनारा करने का बहाना बनाया है। इसे कांग्रेस राजनीतिक कार्यक्रम-करार दे रही है। जबकि महात्मा गांधी से एक पादरी ने पूछा था कि ‘क्या वे राम को भगवान के रूप में अवतार मानते हैं ?‘ तब गांधी ने उत्तर दिया, ‘यदि आप भारतीय दर्शन के ज्ञाता हो तो यह समझ जाएंगे कि जीव मात्र परम सत्ता का अवतार ही है। हमारे बीच से जो लोग विभूतियों से संपन्न होते हैं, वे विशेष अवतार हो जाते हैं। इसी अर्थ में राम अवतार हैं और हम उन्हें भगवान मानते है, अतएव राम इतिहास पुरुष भी है और दिव्य अवतार भी।‘ राम की सांस्कृतिक-धार्मिक ऐतिहासिकता सिद्धकरने का इससे सार्थक कोई दूसरा उदाहरण कांग्रेस को अपने पूर्वजों से मिल नहीं सकता ? गोया, अपने पूर्वजों से सबक लेने की बजाय, कांग्रेस नेता शशि थरूर ने अयोध्या के राम मंदिर उद्घाटन को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना तो की ही है, 14 फरवरी को अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी में एक हिंदू मंदिर का उद्घाटन नरेंद्र मोदी से कराए जाने की भी निंदा की है। अपने ट्विटर हैंडल पर थरूर ने कहा है, 2024 में भाजपा अपने मूल संदेश पर लौटेगी और मोदी को हिंदू हृदय सम्राट के रूप में पेश करेगी। इसी साल के लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व बनाम लोक-कल्याण को वास्तविक मुद्दा बना दिया जाएगा। खैर, अभिव्यक्ति की आजादी के चलते कोई कुछ भी कहें, इतना तय है कि इस राम-महोत्सव के साथ भारत सांस्कृतिक-आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की छाया में आगे बढ़ता दिखाई देगा। सनातन हिंदू संस्कृति ही अखंड भारत की संरचना का वह मूल गुण-धर्म है, जो इसे हजारों साल से एक रूप में पिरोये हुए है। इस एकरूपता को मजबूत करने की दृष्टि से भगवान परशुराम ने मध्यभारत से लेकर अरुणाचल प्रदेश के लोहित कुंड तक आताताईयों का सफाया कर अपना फरसा इसी कुंड के जल से धोया था, वहीं राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक और कृष्ण ने पश्चिम से लेकर पूरब तक सनातन संस्कृति की स्थापना के लिए सामरिक यात्राएं कीं। इन्हीं यात्राओं से भारत का जनमानस सांस्कृतिक रूप से समरस हुआ। इसीलिए समूचे प्राचीन आर्यावर्त में वैदिक और रामायण व महाभारत कालीन संस्कृति के प्रतीक चिन्ह मंदिरों से लेकर विविध भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इन्हीं स्थापनाओं ने दुनिया के गणतंत्रों में भारत को प्राचीनतम गणतंत्र के रूप में स्थापित किया। यहां के मथुरा, पप्रावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे। केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था। लेकिन अतिरिक्त भक्ति, उदारता, सहिष्णुता, विदेशियों को शरण और वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण में कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोश रहे, जिनकी वजह से भारत विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया कि विदेशी आक्रांताओं ने इन्हीं कमजोरियों को सत्ता पर काबिज होने का पर्याय मान लिया और वे भारत को परतंत्र बनाने में सफल भी हो गए। परंतु पिछले एक दशक में न केवल देशव्यापी, बल्कि भारतीय संदर्भ में विश्वव्यापी आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। भारत पांचवीं अर्थव्यवस्था है और हरेक विकसित देश भारत का सहयोगी बनने को उत्सुक है। मोदी के मंदिरों से जुड़े कायाकल्प केवल धार्मिक नहीं हैं, बल्कि वे अर्थव्यवस्था, आत्मनिर्भरता और स्व-रोजगार के साथ आधुनिक और वैज्ञानिक विकास को भी मजबूत धरातल दे रहे हैं। आयोध्या में साढ़े पांच सौ सालों से आहत सनातन सभ्यता को नई गरिमा मिली है। आयोध्या में सुनहरे क्षितिज का भविष्य लिखते हुए वाल्मीकि हवाईअîóा बन गया है, जो देश ही नहीं दुनिया में रहने वाले हिदू धर्मावलंबियों के लिए राम दर्शन की यात्रा आसान करेगा और भारत में विदेशी मुद्रा आएगी, साथ ही आयोध्या में स्थानीय रोजगारों को बल मिलेगा। वाराणसी, उज्जैन और अन्य धार्मिक पर्यटनों को दृष्टिगत रखते हुए ही दुनिया के सबसे बड़े 1000 विमानों की खरीद के आदेश एयर इंडिया और इंडिगो ने दिए हैं। हवाई यातायात की यह तेज गति विकसित होते भारत की बानगी तो है ही राष्ट्रीय एकता की संवाद-शक्ति भी बन रही है। मोदी सरकार इसी क्रम में केदारनाथ और बदरीनाथ धाम का पुनर्विकास कर रही है। नरेंद्र मोदी का यह आध्यात्मिक पुनर्जागरण का ऐसा उपाय है, जिससे स्वतंत्रता के बाद के सभी शासक कथित धर्मनिरपेक्षता आहत न हो जाए, इस कारण बचते रहे हैं। जबकि वाकई इन उपायों से ही भारत की संप्रभुता और अखंडता बहाल हुए हैं। जिनका 1400 साल पहले भारत भूमि पर इस्लाम के प्रवेश के बाद दमन होता चला आ रहा था। तलवार की धार से किए गए इस दमन का ही परिणाम था की लाखों हिंदू मुसलमान बन गए। जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया, उन्हें मैला ढोने जैसे कार्यों के लिए मजबूर करके अपमानित व अभिशापित किया। किंतु अब समय का चक्र कुछ विपरीत दिशा में घूमने लगा है। अनेक प्रतिष्ठित मुस्लिम हस्तियां नए तथ्यों और साक्ष्यों से अवगत होकर न केवल अपनी मानसिकता को बदल रही हैं, बल्कि धर्म-परिवर्तन कर अपने मूल हिंदू धर्म में भी लौटने लगे हैं। इसी तरह के बदलाव की चेतना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने में आई थी। इसीलिए इसे भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोत्तर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई। भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया गया है। इसके वनिस्पत फ्रस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया,अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी। अमेरिका ने व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और सुख के उद्देश्य की परिकल्पना तो की, परंतु उसमें स्त्रियां और हब्शी गुलाम बहिष्कृत रहे। मार्क्स और लेनिनवाद ने एक वैचारिक पैमाना तो दिया, किंतु वह अंततः तानाशाही-साम्राज्यवादी मुखौटा साबित हुआ। इस लिहाज से स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के ही विचार थे, जो समग्रता में न केवल भारतीय हितों, बल्कि वैश्विक हितों की भी चिंता करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में विनायक दामोदर सावरकर ने प्रखर हिंदुत्व और दीनदयाल उपध्याय ने एकात्म मानवतावाद एवं अंत्योदय के विचार दिए, जो संसाधनों के उपयोग से दूर अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की चिंता करते हैं। मोदी का यह सांस्कृतिक विकास और पर्यटन अंतिम छोर पर खड़े इसी व्यक्ति की आर्थिक आमदनी बढ़ाने का काम कर रहे हैं। अतएव विपक्षी नेताओं की यह दलील थोथी है कि अर्थव्यवस्था और रोजगार की चिंता मोदी सरकार नहीं कर रही है।
-प्रमोद भार्गव,लेखक/पत्रकार