मिट गया..कंधार कांड का ‘दाग’: सेना के बाद राजनीति के मैदान में उतरे थे जसवंत

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छह सालों से लगातार कोमा में रहे .अटल सरकार में निभाई अहम भूमिका
नई दिल्ली/ देहरादून(उद ब्यूरो)। दिवंगत जसवंत सिंह 1960 में सेना में मेजर के पद से इस्तीफा देकर राजनीति के मैदान में उतरे थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में वह अपने करियर के शीर्ष पर थे। 1998 से 2004 तक राजग के शासनकाल में जसवंत ने वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालयों का नेतृत्व किया। जसवंत का राजनीतिक करियर कई उतार-चढ़ाव से गुजरा और इस दौरान विवादों से उनका चोली दामन का साथ रहा। 1999 में एयर इंडिया के अपहृत विमान के यात्रियों को छुड़ाने के लिए आतंकवादियों के साथ कंधार जाने के मामले में उनकी काफी आलोचना हुई। राजग शासन के दौरान जसवंत सिंह हमेशा अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वासपात्र व करीबी रहे। वह ब्रजेश मिश्र और प्रमोद महाजन के साथ वाजपेयी की टीम के अहम सदस्य थे। बाद में वह 2009 तक राज्य सभा में विपक्ष के नेता रहे और गोरखालैण्ड के लिए संघर्ष करने वाले स्थानीय दलों की पेशकश पर दार्जिलिंग से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की। जसवंत सिंह को एक समय ऐसी स्थिति का भी सामना करना पड़ा जब अगस्त 2009 में उन्हें अपनी पुस्तक ‘जिन्नाः भारत विभाजन और स्वतंत्रता’ में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा करने पर भाजपा से निष्कासित कर दिया गया था। कंधार विमान अपहरण कांड भारत के शरीर पर ऐसा जख्म है, जो रह-रह कर रिसता है और पूरे देश में एक टीस-सी पैदा होती है।जसवंत सिंह की सबसे बड़ी आलोचना तब हुई जब 1999 में कंधार विमान अपहरण के बाद तीन आतंकवादियों को अपने विमान में कंधार ले गए। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी सफाई में कहा कि ऐसा उन्होंने अपने अधिकारियों की सलाह पर किया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘अ काॅल ट्रू आनर’ में लिखा, कंधार में मौजूद हमारे तीनों अधिकारियों अजीत डोवाल, सीडी सहाय और विवेक काटजू ने मुझसे कहा कि किसी ऐसे शख्स को कंधार भेजिए जो वहाँ जरूरत पड़ने पर बड़ा निर्णय लेने में सक्षम हो। हालांकि पहले आतंकवादी 40 लोगों की रिहाई की माँग कर रहे थे, हम 3 लोगों को रिहा करने पर राजी हुए। अगर इस तरह के हालात आखरी मिनट में दोबारा पैदा होते हैं, तो उस शख्स को दिल्ली से पूछने के बजाए उसी जगह पर फैसला लेना होगा। इस वजह से मैंने कंधार जाने का फैसला लिया। जसवंत सिंह के जमाने में विदेश मंत्रालय में संयुत्तफ सचिव रहे विवेक काटजू बताते हैं, इस संबंध में जसवंत सिंह की जो आलोचना हुई, वो उनके साथ नाइंसाफी है। जसवंत सिंह ने जो कघ्दम उठाया था वो उनका अपना फैसला नहीं था। उसकी मंत्रिमंडल ने बाकायदा मंजूरी दी थी। इसका एक मकघ्सद था। वो ये था कि वहाँ फंसे हुए भारतीय हर हालत में सुरक्षित वापस लौटें। आलोचना करने वाले लोगों ने उस मकसद को नजरअंदाज कर दिया।24 दिसंबर, 1999 का वह दिन हम भूल नहीं सकते, जब अचानक यह खबर आई कि इंडियन एयरलाइंस के विमान आई सी 814 का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया है। पूरा देश सकते में था और करीब एक सप्ताह तक यह बंधक संकट चला था। यह विमान काठमांडू से दिल्ली के लिए रवाना हुआ था। विमान में 176 यात्री और 15 क्रू मैंबर सवार थे। रास्ते में आतंकवादियों ने उसका अपहरण कर लिया। हरकत उल मुजाहीद्दीन के अपहरणकर्ता आतंकवादियों ने पहले इस विमान को अमृतसर में उतारा, फिर लाहौर ले गए, पर वहां उन्हें ठहरने की अनुमति नहीं मिली, फिर दुबई में वह उतरा, जहां उन्होंने 27 यात्रियों को छोड़ा और उसके बाद अफगानिस्तान के कंधार ले गए। इस विमान को 31 दिसंबर, 1999 को आतंकवादियों ने अपने तीन साथियों मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को रिहा करने के एवज में छोड़ दिया था। आज भी अटल सरकार के उस फैसले की विपक्षी दल तीखी आलोचना करते हैं और तत्कालीन विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह का उपहास भी उड़ाया जाता रहा है। लेकिन जसवंत सिंह उन गिने-चुने राजनेताओं में से थे जिन्हें भारत के विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। विदेश मंत्री के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी, 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया के सामने भारतीय पक्ष को रखकर उनकी गलतफहमियाँ दूर करना। जसवंत सिंह ने इस भूमिका को ठीक तरह से निभाया। जसवंत और अमरीकी उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टालबाॅट के बीच दो सालों के बीच सात देशों और तीन महाद्वीपों में 14 बार मुलाकात हुई। एक बार तो दोनों क्रिसमस की सुबह मिले ताकि उनकी बातचीत का मोमेंटम बना रहे। बाद में टालबाॅट ने अपनी किताब इंगेजिंग इंडिया डिप्लाॅमेसी, डेमोक्रेसी एंड द बाॅम्ब में लिखा, जसवंत दुनिया के उन प्रभावशाली इंसानों में से हैं जिनसे मुझे मिलने का मौका मिला है। उनकी सत्यनिष्ठता चट्टðान की तरह है। उन्होंने हमेशा मुझसे बहुत साफगोई से बात की है। भारत के दृष्टिकोण को उनसे ज्यादा बारीकी से मेरे सामने किसी ने नहीं रखा। उनके ही प्रयासों की वजह से ही राष्ट्रपति क्लिन्टन की भारत यात्रा संभव हो सकी थी। हालांकि 2004 में भारत के विदेश मंत्री नटवर सिंह ने उनकी ये कहकर आलोचना की कि उन्हें अमरीका के उप विदेश मंत्री के बजाए अपनी समकक्ष मेडलीन आॅलब्राइट के साथ बातचीत करनी चाहिए थी। जसवंत सिंह और अमरीकी उप विदेश मंत्री स्ट्रोब टालबाॅट के बीच दो सालों के बीच सात देशों और तीन महाद्वीपों में 14 बार मुलाकात हुई। तीन जनवरी, 1938 को बाड़मेर जिले के जसोल गाँव में जन्मे जसवंत सिंह भारतीय जनता पार्टी के उन गिने-चुने नेताओं में से थे जो आरएसएस की पृष्ठभूमि से नहीं आते थे। दिलचस्प बात ये है कि पूरी दुनिया में अपने अंग्रेजी ज्ञान के लिए मशहूर जसवंत सिंह ने जब इस काॅलेज में दाखिला लिया तो उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी। जसवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा अ काॅल टू आॅनर में लिखा, अंग्रेजी न आना मेरे लिए बहुत शर्म की बात थी। लेकिन इसे सीखने में किसी की मदद लेना मेरी शान के खिलाफ था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद ही न सिर्फ इस भाषा को सीखूंगा बल्कि इसमें पारंगत भी बनूंगा। 1954 में जसवंत सिंह का चयन एनडीए, देहरादून के लिए हो गया। वहाँ वो अकादमी के कमांडेंट मेजर जनरल हबीबुल्लाह के संपर्क में आए। उन्होंने उन्हें एक तरह से गोद ले लिया। कुछ दिनों बाद एनडीए को पुणे के पास खड़कवासला शिफ्ट कर दिया गया। वहाँ जसवंत सिंह ने पहली बार जवाहरलाल नेहरू को देखा। वहीं, उन्हें सोवियत संघ के महान जनरल मार्शल जुकोव से हाथ मिलाने का मौका मिला। 1966 में जसवंत सिंह ने 9 साल की नौकरी के बाद सेना के अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कुछ समय के लिए वो जोधपुर के महाराजा गज सिंह के निजी सचिव रहे। 1980 में वो बीजेपी के टिकट पर पहली बार राज्य सभा के लिए चुने गए। 1996 में वो वाजपेयी की 13 दिन की सरकार में वित्त मंत्री बनाए गए। जब वाजपेयी दोबारा सत्ता में आए तो वो जसवंत सिंह को फिर वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन आरएसएस ने उनके मंत्री बनाए जाने का विरोध किया। वाजपेयी को इससे बहुत दुख पहुंचा लेकिन उन्होंने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया। उस समय जसवंत सिंह से पूछा गया था कि क्या आरएसएस द्वारा उन्हें मंत्री बनाए जाने का विरोध करने से आप निराश हुए हैं, तो जसवंत सिंह का जवाब था, दुनिया उन लोगों की कब्रों से भरी पड़ी है जो ये समझते थे कि उनके बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता है। मेरा मानना है कि मेरे बिना इस देश का काम चल सकता है। कुछ दिनों बाद वाजपेयी ने उन्हें विदेश मंत्री बना दिया और वो 2002 तक भारत के विदेश मंत्री रहे। इसके बाद उन्हें दोबारा वित्त मंत्री बनाया गया। आडवाणी की रथ यात्रा और अयोध्या आंदोलन में उनकी कभी दिलचस्पी नहीं रही। भारतीय जनता पार्टी के एक वर्ग ने अपने आप को कभी भी जसवंत सिंह के साथ सहज नहीं महसूस किया। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और भैरों सिंह शेखावत जैसे कुछ खैर- ख्वाहों की वजह से वो न सिर्फ पार्टी में बने रहे बल्कि फले फूले भी। कहा जाता है कि वाजपेयी उनकी अंग्रेजी भाषा, खासकर क्वींस इंग्लिश पर उनकी महारत के कारण उनके मुरीद थे। भैरों सिंह शेखावत के साथ उनका ठाकुर और मिट्टðी का कनेक्शन था। जो लोग जसवंत सिंह को नजदीक से जानते हैं, उनका मानना है कि वो बहुत ही सुसंस्कृत, ज्ञानी और लचीले शख्स थे। बात करने की जो कला उनके पास थी, कम लोगों के पास थी। वो बहुत सोच-समझकर ही कुछ कहते थे। उनसे कई बार मिल चुके वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला कहते हैं, उन जैसे शालीन और भद्र व्यत्तिफ भारतीय राजनीति में कम हुए हैं। अपने पूरे करियर में उन्होंने कभी भी सैनिक अनुशासन का त्याग नहीं किया। हालांकि उन्होंने सैनिक अफसर की अपनी वर्दी 53 साल पहले छोड़ दी थी। वाजपेयी के साथ उनकी नजदीकी का कारण था कि वो उनके विश्वासपात्र थे, उनकी विश्व-दृष्टि से पूरी तरह सहमत थे और सबसे बड़ी बात वाजपेयी को उनसे किसी तरह का कोई राजनीतिक खतरा नहीं था। जसवंत सिंह के राजनीतिक जीवन की एक खामी ये थी कि वो अपने आप को जन राजनीति के साँचे में कभी नहीं ढाल पाए। शायद जसवंत सिंह के राजनीतिक करियर का सबसे तकलीफदेह दिन तब था जब उनकी पुस्तक जिन्ना-इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस प्रकाशित होने के सिर्फ दो दिन बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर दिया था। घुड़सवारी, संगीत, किताबों, गोल्फ और शतरंज के शौकीन जसवंत सिंह हमेशा अपने को श्लिबरल डेमोक्रेटश् कहते रहे। 2014 चुनाव से एक दिन पहले वो अपने बाथरूम में गिर पड़े जिससे उनके सिर में गहरी चोट लगी। वो पिछले छह सालों से लगातार कोमा में रहे और अब वो दुनिया को अलविदा कह गए। इन छह सालों के बीच उनके कई करीबी साथी जैसे जार्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें छोड़ कर इस दुनिया से चले गए लेकिन उन्हें कभी इसके बारे में नहीं बताया गया।

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