रूपेश कुमार सिंह
ऊधम सिंह नगर।‘‘जन्मजात भारत के नागरिक हैं,’’ कह देना ही पर्याप्त नहीं होगा। नागरिकता साबित करने के लिए आधा दर्जन से ज्यादा प्रमाण देना होगा। तब जाकर सरकार आपको देश का नागरिक मानेगी। राज्य में यदि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एन आर सी) लागू हुआ तो लाखों लोग घुसपैठिया करार दे दिये जायेंगे। यह बात दीगर है कि तीन पुश्तें यहीं मर-खप गयीं हो, लेकिन फिर भी बाहरी माने जाओगे। खदेड़ दिये जाओगे। ऐसा सिर्फ मुसलमान, बंगाली मुसलमान, रोहिंग्या मुसलमान के साथ नहीं होगा। हिन्दू बंगाली, नेपाली, देशी, वन गुज्जर, बुक्सा-थारू, बंगाली शरणार्थियों, खत्ता निवासी, आदिवासियों के अलावा अन्य लोग भी प्रभावित होंगे। देश में एनआरसी लागू करना भाजपा सरकार का बड़ा एजेंडा है, जिसे सितम्बर 2020 तक जमीन पर पूरी तरह से उतारा जायेगा। ऐसा साफ संकेत गृहमंत्री अमित शाह दे चुके हैं। इसी क्रम में त्रिवेन्द्र सरकार ने मसौदा सामने रखा है। राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर एनआरसी को असम सहित देश के संसाधन संपन्न राज्यों, जहां आदिवासी रहते हैं, वहां लागू किया जायेगा। मकसद साफ है राष्ट्रीय संसाधनों की लूट। पूंजीपतियों को खुली छूट देने के लिए जंगलखाली कराने पर आमादा है सरकार। खैर, पहले असम की बात करते हैं। असम के मूल निवासी बोड़ो, होजोंग और रियांग आदिवासी एनआरसी से बाहर कर दिये गये। नागरिकता का सबूत नहीं दे पाने के चलते असम में 19 लाख लोगों को घुसपैठियों की कतार में खड़ा कर दिया गया। इसमें आपातकाल के दौरान देश के राष्ट्रपति रहे डॉ0 फकरूद्दीन अली अहमद का परिवार भी शामिल है। इसकेअलावा पुलिस, फौज, सरकारी नौकरी कर चुके हजारों लोग भी एनआरसी से बाहर पाये गये। उत्तराखण्ड में भाजपा नेताओं ने झूठ बोला, ‘‘असम में सिर्फ बंगाली मुसलमान और रोहिंग्या मुसलमान को ही चिन्हित किया गया है। बंगाली हिन्दुओं को डरने की आवश्कता नहीं है।’’ जब संख्या का सरकारी आकड़ा जारी हुआ तो सबके होश उड़ गये। 19 लाख घुसपैठियों में सात लाख बंगाली हिन्दू, पांच लाख नॉन बंगालीध्नॉन असमिया हिन्दू, पांच लाख मुसलमान और शेष आदिवासी शामिल हैं। तस्बीर साफ होने पर उत्तराखण्ड और उत्तर-प्रदेश में रहने वाले लाखों बंगाली शरणार्थियों में हड़कंप मच गया। अब प्रदेश सरकार की मंशा साफ होने से बंगाली समाज खौफजदा है। गौरतलब है कि गोविन्द बल्लभ पंत की पहल पर अविभाजित उत्तर-प्रदेश में सबसे पहले 1952 में पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ित विस्थापित हिन्दुओं को पश्चिम पाकिस्तान से आये हिन्दू और सिख शरणार्थियों के साथ बसाया गया था। भारत विभाजन के वक्त भारत सरकार और राष्ट्रीय नेताओं ने पाकिस्तान के विभाजन पीड़ित हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता देने और नये सिरे से बसाने का वायदा किया था। यहीं नहीं सरदार बल्लभ भाई पटेल के निधन के बाद 1955 में भारत के गृहमंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत ने देश भर में विभाजन पीड़ित शरणार्थियों के पुनर्वास का काम पूरा कराया, जिसमें दण्डकारणर्य प्रोजेक्ट के पांच आदिवासी बहुल राज्य शामिल हैं। असम एक ऐसा प्रदेश है, जहां 1951 में एनआरसी तैयार हुई। 1985 में असम समझौता के तहत बांग्लादेश की स्वतंत्रता से एक दिन पहले मतलब 24 मार्च 1971 तक के प्रमाण देने वालों को ही भारत का नागरिक माना गया। तब से ही वहां असमंजस की स्थिति बरकरार है। दरअसल 1955 के नागरिकता कानून के तहत भारत में जन्म लेने वाला भारत का जन्मजात नागरिक माना जाता था। इसके अलावा इस कानून के तहत पूर्वी बंगाल, पश्चिम पाकिस्तान और वर्मा के विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को भारत का नागरिक माना गया था। लेकिन अटल सरकार में गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने 2003 में नागरिकता संशोधन कानून बनाया। इसके तहत जन्मजात नागरिकता खत्म कर दी गयी और शरणार्थियों की नागरिकता को भी समाप्त कर दी गयी। नागरिकता चूंकि जन्मजात नहीं है इसलिए अब हर व्यक्ति को नागरिकता लेनी होगी। भाजपा सरकारों के शासनकाल में एनआरसी का मुद्दा हमेशा गरमाता रहा है। ऐसा राजनीतिक फायदे के लिए भी होता रहा है। उत्तराखण्ड में तो बंगाली समाज को एनआरसी का भय दिखाकर भाजपा दो दशक से फायदा ले रही है। असम में नागरिकता और एनआरसी में हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता देने के वायदे पर हिन्दू शरणार्थियों के समर्थन से भाजपा को सत्ता मिली। पश्चिम बंगाल में भी असम की तरह एनआरसी कार्ड से भाजपा सत्ता हथियाना चाहती है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली कामयाबी के पीछे यही मुद्दा प्रमुख रहा है। भाजपा की ओर से देशभर में एक और मिथ्या प्रचार किया जा रहा है, ‘‘एनआरसी के तहत सिर्फ मुसलमानों को देश से बाहर किया जायेगा।’’ जबकि इस कानून से सबसे ज्यादा आदिवासी समुदाय प्रभावित हो रहा है। 1947 के विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान से बंगाली और पंजाबीध्सिख लोग उत्तर-प्रदेश में आये। पंजाबी और सिख समाज के लोगों को तो सरकार ने तत्काल नागरिकता देने के साथ जमीन देकर पुनर्वास कराया। साथ ही पाकिस्तान में मौजूद संपत्ति के हिसाब से मुआवजा भी दिया। लेकिन बंगाली समाज के लोगों को ट्रांजिट कैम्प में रखा। उन्हें अनुग्रहित राशि दी गयी। जमीन भी बाद में दी गयी, लेकिन नागरिकता प्रमाण पत्र नहीं दिया। अधिकांश को जमीन नहीं मिली, वे भूमिहीन खेतिहर मजदूर बनकर रह गये। बाद में उनमे से अनेक लोगों ने अपनी मेहनत से जमीन-जायदाद भी हासिल कर ली। उन्हें शरणार्थी ही माना गया। आज तक बंगाली समाज शरणार्थी ही है। 1971 में बांग्लादेश बनने के समय भी बड़ाी तादात में बंगाली लोग आये, लेकिन उन्हें वो सुविधाएं भी नहीं दी गयी जो 1947 के बाद आने वाले लोगों को मिलीं। 1971 के बाद आने वाले बंगाली शरणार्थियों की तादाद बहुत ज्यादा है। यदि उत्तराखण्ड में भी 1971 के मानक को माना गया तो 71 से पहले के भूमि दस्तावेज, बोर्ड या विश्वविद्यालय प्रमाण पत्र, जन्म प्रमाण पत्र, बैंक, एलआईसी, पोस्ट ऑफिस रिकार्ड, राशन कार्ड, मतदाता सूची में नाम, कानूनी रूप से स्वीकार अन्य दस्तावेज, विवाहित महिलाओं के लिए एक सर्कल अधिकारी या ग्राम पंचायत सचिव द्वारा दिया प्रमाण पत्र आदि दिखा पाना लाखों लोगों के लिए संभव नहीं होगा। इससे हिन्दू बंगाली, बुक्सा-थारू, नेपाली, वन गुज्जर, मुसलमान, खानाबदोश जिन्दगी बसर करने वाले, भूमिहीन, मजदूर, भिखारी आदि प्रभावित होंगे। पहाड़ में भी आपदा के दौरान अभिलेख नष्ट हो जाने वालों को भी परेशानी होगी। ऐसे में नागरिकता का प्रमाण न दे पाने वाले लाखों लोगों का क्या होगा? वास्तव में एनआरसी पर बहस होनी चाहिए। सरकार का मसौदा अभी साफ नहीं है, जनता के बीच पक्ष-विपक्ष मुखर है। कुल मिलाकर भ्रम की स्थिति बरकरार है। उत्तराखण्ड में न बांग्लादेशी मुसलमान हैं और न ही रोहिंग्या मुसलमान, तो फिर बांग्लादेशी घुसपैठियों के िखलाफ इस युद्धघोषणा का मतलब क्या है? भाजपा नेता दावा कर रहे हैं कि हिन्दू शरणार्थी घुसपैठिया नहीं, भारतीय नागरिक हैं। अब्बल तो भारतीय संविधान, कानून के राज, अन्तर्राष्ट्रीय कानून और मानवाधिकार कानून के तहत किसी भी समुदाये विशेष को नागरिक मानना और किसी दूसरे को न मानना गलत है। फिर असम में तो हिन्दू शरणार्थी और गैर शरणार्थी, असमिया मूल के लोग और आदिवासी लाखों की तादाद में एनआरसी से बाहर हैं। इसलिए यह समझना भी खुशफहमी है कि सिर्फ बंगाली शरणार्थी इससे प्रभावित होंगे। उत्तराखण्ड की भू-माफिया राजनीति पहाड़ के जल, जंगल, जमीन से कारपोरेट हित में मूल निवासियों को बेदखल करने के लिए असम और आदिवासी बहुल राज्यों की तरह यहां भी एनआरसी का इस्तेमाल कर सकती है। क्योंकि अधिकांश आम नागरिकों में जन्मजात नागरिक होने का भ्रम होने की वजह से उन्होंने नागरिकता के दस्तावेज अर्जित नहीं किये हैं या फिर सहेज कर नहीं रखे हैं।
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