संघर्षों के बीच निखरता उत्तरांचल दर्पण

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उत्तरांचल दर्पण के संस्थापक तिलकराज सुखीजा की आज सातवीं पुण्य तिथि है जिसे हम सब बड़ी सादगी से मनाते हुये उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। संघर्षो के साथ शुरू किये गये सान्ध्य दैनिक उत्तरांचल दर्पण आज भी संघर्ष करते हुये निरन्तर बुलन्दियों की ओर बढ़ रहा है। कहने को तो उत्तरांचल दर्पण प्रदेश के पाठकों का लोकप्रिय और पसंदीदा सान्ध्य दैनिक समाचार पत्र है। लेकिन इसके शुभारम्भ से लेकर आज तक उत्तरांचल दर्पण परिवार हमेशा इसे बुलन्दियों पर ले जाने के लिये निरन्तर संघर्ष करता रहा। अपने पिता हरनाम दास सुखीजा के मार्ग दर्शन में स्व0 सुखीजा ने अपने भाईयों के साथ मिलकर सांध्य दैनिक समाचार पत्र को ऐसे समय में सफलता के मुकाम तक पहुंचाया जब लोग सांध्य दैनिक समाचार पत्रों की सफलता की कल्पना भी नहीं करते थे। उनसे पहले प्रदेश में प्रकाशित होने वाले कई सांध्य दैनिक समाचार पत्र या तो कुछ दिनों में बंद हो गये या फिर निरंतरता के साथ प्रकाशित नहीं हो पाये। आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं होने के बावजूद एक साधारण पत्रकार के लिए समाचार पत्र की निरंतरता को बनाए रखना कितना मुश्किल होता है, यह स्व. सुखीजा और दर्पण परिवार से बेहतर कोई नहीं जान सकता। समाचार पत्र को निरंतर ईमानदारी के साथ प्रकाशित करने के लिए आज भी कहा जाता है कि यह घर फूंककर तमाशा देखने जैसा है। स्व0 सुखीजा ने जब समाचार पत्र शुरू किया तो उनके सामने कई दिक्कतें आई लेकिन उन्होंने हौंसला नहीं छोड़ा और जो सोचा उसे करके दिखाया। उनके पास न तो पैसा था और न ही उनके अंदर बेईमानी से पैसा कमाने की चाह। उनके पास थी तो बस सच्चाई और ईमानदारी। व्यवसायिक हो रही पत्रकारिता के बीच उन्होंने अपने जीवन में पत्रकारिता को व्यवसायिक नहीं होने दिया। व्यावसायिकता की बढ़ती हुयी चुनौती को स्वीकार करते हुए समाचार पत्र को हमेशा इससे बचाये रखा और बाजार की आवश्यकता के हिसाब से समाचार पत्र को रंगीन करने का निर्णय लिया। पूंजी के अभाव में उन्होंने बैंकों और अपने मिलने वालों से लाखों रूपये का ऋण लेकर आधुनिक मशीन लगाई और समाचार पत्र को रंगीन किया। लेकिन इसके साथ ही समाचार पत्र की लागत कई गुना बढ़ गई। जिसकी भरपाई का कोई माध्यम नही था। राज्य और केन्द्र सरकार की छोटे और मझौले समाचार पत्रों के प्रति उपेक्षापूर्ण विज्ञापन नीति के चलते समाचार पत्र चलाना लोहे के चने चबाना जैसा था। लेकिन स्व. सुखीजा का संघर्ष जारी रहा। इसी बीच कुदरत ने उनके साथ ऐसी अनहोनी कर दी और वह एक गंभीर बीमारी का शिकार हो गये। आर्थिक रूप से कमजोर परिजनों ने अपने परिचितों और रिश्तेदारों से 35.40 लाख रूपये का ऋण लेकर उन्हें बचाने का हरसम्भव प्रयास किये मगर कुदरत के आगे किसी की नही चली और श्री सुखीजा हम सबको छोड़  प्रभु के चरणों में लीन हो गये। दर्पण परिवार के लिये यह संक्रमण काल था। बैंकों का ऋण 55 लाख से ऊपर पंहुच चुका था।  बाजार और परिचितों का भी काफी ऋण हो चुका था। आर्थिक स्थिति खराब होने के चलते बैंकों के ऋण खाते एनपी हो गये। एक बैंक ने तो समाचार पत्र छापने वाली वेब मशीन पर पजेशन ले कर ऋण वसूली की अपनी कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी थी। विषम परिस्थितियों के चलते समाचार पत्र पर संकट और गहरा गया था। अपने ही लोगों द्वारा विरोधियों के साथ मिलकर समाचार पत्र के लिये कई अड़चने उत्पन्न की गई। समाचार पत्र बंद होने के कगार पर पहुंच गया। लेकिन पाठकों, विज्ञापनदाताओं और शुभचिन्तकों की दुआओं और सहयोग के आगे विषम परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत मिली और स्व0 सुखीजा के दिखाये गये मार्ग के अनुरूप ही आज भी उत्तरांचल दर्पण नियमित रूप से अपने पाठकों के बीच पहुंच रहा है। आज उनके आदर्श ही उत्तरांचल दर्पण परिवार के लिए ऊर्जा के स्रोत हैं। उनकी प्रेरणा से उत्तरांचल दर्पण निरन्तर बुलन्दियों पर पहुंच रहा है। हिन्दी सान्ध्य दैनिक के रूप में प्रदेश वासियों की पहली पसन्द उत्तरांचल दर्पण सोशल मीडिया में भी अपनी पकड़ मजबूत कर चुका है। उत्तरांचल दर्पण के न्यूज पोर्टल www.uttaranchaldarpan.in को पिछले 1 साल में 15 लाख से अधिक बार लोग देख चुके है। जिसके लिये हम अपने पाठकों का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं और यह विश्वास दिलाते हैं कि आगे भी पीत पत्रकारिता से ऊपर रहते हुये स्व0 सुखीजा के आदर्शों पर चलकर पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतरते रहेंगे।

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