भगीरथ को गंगा दे दी सब ने स्नान किया, बड़े बड़े पापियों का पल में कल्याण किया
गतांक से आगे——
‘‘भगवान,मैं भी जन्म-मरण के दुखदायी बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना चाहती हॅू। आप कृपा करके उस अमरत्वदाता अमर कथा का सम्पूर्ण प्रसंग मुझे भी सुना दीजिए। मैं आपके चरण कमलों में रहकर सदैव आपकी सेवा करना चाहती हूं।’’पार्वती जी आग्रह पूर्वक बार-बार हठ करने लगी-‘‘ तो फिर मुझे भी यह अमरकथा सुना दीजिए ना।’’ अब श्री शंकर जी के पास अमरकथा सुनाने के अतिरिक्त और कोई
उपाय न बचा।
(वास्तव में,यह नारद जी की सोची-समझी योजना के अन्तर्गत, लोकहित के लिए ही था। वह लोक कल्याण हेतु,भगवान श्री शंकरजी के मुख सेे अमरकथा का प्रसंग सुनवाना चाहते थे।) प्रत्यक्ष-रूप से शंकर जी को यह अनुरोध, अपनी इच्छा के विरूद्ध, स्वीकार करना पड़ा
अब समस्या यह थी कि पार्वती के अतिरिक्त अन्य कोई जीव ‘अमरकथा- को न सुने। अन्यथा, सृष्टि के संचालन की व्यवस्था बिगड़ सकती थी। सभी प्राणी अमर होने लगे, तो देवों की प्रतिष्ठा में अन्तर आ जाएगा।अतःभगवान शंकर किसी निर्जन और सुरक्षित-स्थान की खोज करते- करते कैलाश पर्वत के इस क्षेत्र (श्री अमरनाथ क्षेत्र)में आ पहुंचे। आजकल जहां पहलगांव कस्बा बना है, उस स्थान के आगे चन्दनवाड़ी और शेषनाग झील होते हुए,महागुनस, पंचतरणी इत्यादि चोटियों को पार करके अन्ततः श्री अमरनाथ की गुफा के पास पहुंच गए। बाद में,इन सभी स्थानों का नामकरण किस प्रकार हुआ,यह भी रोचक प्रसंग है।(इन सब पवित्र स्थानों का उल्लेख हम अलग से करेंगे) निर्जन-गुफा में पहुंचने के बाद भी शंकर भगवान यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि आस-पास कोई जीवन न हो।
अतःश्री शंकर जी ने आसन लगाया और कालाग्नि रूद्र नामक एक गण प्रकट किया और उसे आज्ञा दी -‘चहूं’ और एक ऐसी अग्नि प्रगट करो जिसमें कि समस्त जीवधाारी मर जावे।’
-श्री शुक देव का जन्म-
भगवान शंकर की आज्ञा पाकर कालग्नि ने ऐसा ही किया और फिर अदृश्य हो गया। परन्तु होनी बड़ी बलवान होती है। जिस आसन पर भगवान श्री शंकर बैठे थे ,उसके नीचे एक तोते का अण्डा पहले से ही था, जो कि कालाग्नि को दिखाई नही दिया। वह नष्ट होने से बच गया। इसके दो कारण थे एक तो अण्डा जीवधारियों की श्रेणी में नही आता । दूसरे,शंकर जी की मृगछाला के नीचे होने के कारण शिव की शरण पा गया। इसके पश्चात् भगवान श्री शंकर नेत्र मूंदकर, एकाग्रचित हो कर पार्वती जी को अमरकथा सुनाने लगे और पार्वती जी उनके हर वाक्य पर हुंकारा भरने लगी। धीरे-धीरे पार्वती जी को नींद आने लगी। उसी समय उस अण्डे में से जीव प्रकट हुआ। श्री पार्वती जी तब तक हुंकारा देते-देते सो चुकी थी। अब उसके स्थान पर तोता हुंकारा देने लगा। जब भगवान शंकर अमर कथा समाप्त कर चुके थे तो श्री पार्वती जी की आंखे भी खुली। भगवान श्री शंकर ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने सम्पूर्ण अमरकथा सुनी है? श्री पार्वती ने उत्तर दिया कि अमरकथा नही सुनी। इस पर भगवान श्री शंकर ने पूछा-‘‘ तब हुंकारा कौन देता था?’’
पार्वती जी बोली-मुझे नही मालूम।’’ तब भगवान श्री शंकर ने
इधर-उधर देखा तो उनको एक तोता दिखाई दिया जो उनके देखते ही देखते गुफा में से निकलकर उड़ गया। भगवान शंकर उठकर पीछे दौड़े। वह तोता उड़ता-उड़ता तीनों लोकों में गया लेकिन उसको कही जगह नहीं मिली। भगवान शंकर के क्रोधित एवं कठिन स्वरूप को देखकर,उस तोते का मन मृत्यु की आशंका से भर गया ।
यद्यपि अमरकथा को सुनने के पश्चात् वह अमर हो चुका था,तथापि प्राणरक्षा की आशा से वह इधर-उधर उड़ने लगा। पर भगवान शंकर के शत्रु को कौन शरण देता?
श्री व्यास देव की पत्नी अपने घर केे द्वार पर बैठी जम्हाई ले रही थी,बस तोता उनके पेट में चला गया। उस तोते के बच्चे का पीछा करते-करते ,शंकर जी व्यासदेव जी के द्वार तक आ पहुंचे। भगवान श्री शंकर ने कहा-व्यास जी, मेरा चोर आपके घर में है। उसे उपस्थित करो।’’ महर्षि व्यास बोले-‘‘प्रभो! हमारे घर मेें तो कोई चोर नही हैै।’’ भगवान श्री शंकर के कहने पर महर्षि व्यास ने अपनी पत्नी से पूछा।
उसने उत्तर दिया -ऐसा जान पड़ता हैं कि जैसे कि मेरे पेट मेे कोई पक्षी गया है।’’
महर्षि व्यास जी ने यह बात भगवान श्री शंकर से कही और साथ ही कहा- ‘‘आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कर सकते हैं। लेकिन यह तो आप जानते है कि स्त्री को मारना पाप है।’’ व्यास जी पत्नी को मारकर ही तोते को पकड़ा जा सकता था। यदि ऐसा करें तो स्त्री हत्या का दोष बन जाता। इसलिए श्री वेद व्यास की यह बात सुनकर श्री शंकर लौट गये। वह तोता कई वर्षो तक ऋषि पत्नी के पेट में रहा। लेकिन जब ऋषि पत्नी के पेट का कष्ट अधिक बढ़ता गया तो श्री वेद व्यास जी पहले ब्रम्हा जी के पास और उसके पश्चात श्री शंकर के पास गये। इसके पश्चात चारों श्री वेद व्यास जी के घर पर आए और पक्षी की स्तुति करने लगे। पक्षी, जो भगवान श्री शंकर जी से पावन अमर कथा सुनकर चारों वेदो तथा अठारह पुराणों का ज्ञानी हो गया था, कहने लगा- ‘‘ं जब तक जगत निर्मोही नही होगा, तब तक मैंं मां के पेट से बाहर नही निकलूंगा।’’ इस पर भगवान विष्णु ने अपनी माया से जगत को निर्मोही कर दिया। इस पर वह तोता बालक रूप होकर मां के पेट से बाहर आ गया और उसका नाम शुकदेव हुआ। श्री शुकदेव अपने जन्म के साथ ही सबको प्रणाम करके जंगल की ओर चल दिये और फिर उसके पश्चात भगवान विष्णु ने अपनी माया हटा दी और जगत पुनः मोहयुक्त हो गया। इस पर श्री वेद व्यास जी अपने पुत्र के लिए व्याकुल होकर श्री शुकदेव के पीछे जंगल में दौड़े और उनके पास पहुंचकर उनसे घर चलने के लिए कहा। श्री शुकदेव जी ने कहा- ‘‘जगत निर्मोही है। यहां
न कोई किसी का पुत्र है और न कोई किसी का पिता।’’
श्री वेदव्यास जी बोले- ‘‘ अब ऐसा नही है।’’
श्री शुकदेव जी ने ध्यान लगाकर देखा तो मालूम हुआ कि भगवान श्री विष्णु ने उनके साथ छल किया है। इस पर उन्होंने श्री वेदव्यास जी से कहा- ‘‘जब तक मैं गुरू धारण नही कर लूंगा,वापिस घर नही जाऊंगा और गुरू धारण करने के बाद मैं घर आकर आपकी सेवा करूंगा।
अब समस्या यह थी कि शुकदेव किसे गुरू धारण करें?
श्री शुकदेव का महाराज जनक को गुरू धारण करना-
शुकदेव जी फिर इस संसार में गुरू की खोज में इधर-उधर घूमने लगे। मगर अपने से बढ़कर ज्ञानी उनकों कही नही मिला। इस पर वह श्री वेदव्यास की आज्ञा से महाराज जनक के पास गए। लेकिन महाराज जनक के पास सांसारिक कर्म,स्त्री व राजपाट आदि के कारण उनको ग्लानि हुई। राजा जनक ने जब उनका यह हाल देखा तो अपनी माया से उन्होंने सारे नगर को भस्म कर डाला। राजभवन भी धू-धू करके जलने लगा। इस पर महारानी और महाराज जनक स्थिर-भाव से, शान्त होकर बैठे रहे। राजभवन के जलने से महाराज जनक और पत्नी का चित्त चालायमान नही हुआ,किन्तु श्री शुकदेव जी का चित्त व्याकुल होने लगा। जैसे-जैसे अग्नि की लपटों में घिरने लगे, श्री शुकदेव जी का मन मृत्यु एवं शारीरिक ताप के भय से कांपने लगा। वास्तव में, अमर होने के बाद भी भौतिक शरीर के प्रति आसक्ति शेष थी। परन्तु महाराज जनक आत्मज्ञानी महापुरूष थे। इसी कारण उन्हें विदेह जनक के नाम से भी जाना जाता है। दूसरी और शुकदेव जी को अमर कथा के सुनने तथा अपने अमर हो जाने का अभिमान था।
चन्दनवाड़ीः जहां भगवान शिव शंकर ने अपनी जटा से चन्द्रमा को किया था मुक्त
यह वह स्थान हैं जहां भगवान शिव ने अपनी जटा (केशों) से चन्द्रमा को मुक्त किया था। इस स्थान अर्थात चन्दनवाड़ी की सुन्दरता भी देखते ही बनती है। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे जाते हुए यह 16 किमी लम्बा मार्ग है। चन्दनवाड़ी,समुद्रतल से लगभग 8500 फीट ऊंचाई,पहाड़ी संगम पर, छोटी सी एक घाटी है। यह श्री अमरनाथ यात्र का प्रथम चरण है। पिस्सू घाटी तक कठिन चढ़ाई का मार्ग आगे है। चन्दनवाड़ी के बाद जोजपाल नाम के चारागाह से यात्र मार्ग गुजरता है और आगे यात्र पिस्सू टॉप की ऊचाई को पार करते हुये शेषनाग झील की ओर बढ़ती है। इस स्थान की नैसर्गिक सुन्दरता देख प्रत्येक तीर्थयात्री मंत्रमुग्ध हो जाता है। चन्दनवाड़ी से आगे हिम-आच्छादित ऊंचे-ऊंचे पर्वत, अठखेलियां करती लिद्दर नदी, नैसर्गिक सौन्दर्य के बीच गूंज रहे ‘ओम नमः शिवाय’ और ‘हर-हर महादेव’ के उद्घोषों के बीच गुजर रहे तीर्थयात्रियों के कारवां का अद्भुत एवं विहंगम दृृृश्य का नजारा दुर्गम यात्र को सुगम बना देता है। श्री अमरनाथ यात्र पर जाने वाले तीर्थ यात्रियों को कई जगह प्रकृति द्वारा बनाये गये बर्फ के पुल से होकर भी गुजरना पड़ता है। इस स्थान पर वैसे तो कोई होटल नही हैं लेकिन भगवान शिव के भक्तों द्वारा कई लंगर लगाये जाते हैं,जहां खाने पीने तथा ठहरने के सारे प्रबंध होते है।वहीं सुरक्षा की दृष्टि से सीआरपीएफ के जवान भी मुस्तैदी से तैनात होते रहते हैं।
————-(क्रमशः)