हिमालयी राज्योें ने बनाया संयुक्त मसौदा

हिमालयन कान्क्लेव में केंद्रीय वित्त मंत्री ,नीति आयोग के उपाध्यक्ष समेत कई राज्यों के मुख्यमंत्री पहुंचे

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देहरादून(उद सवांददाता)। हिमालयी राज्यों के लिए पृथक नीति नियोजन की जरूरत समेत अपनी साझा समस्याओं, सांस्कृतिक विरासत, पर्यावरणीय महत्व और विशिष्ट भौगोलिक परिवेश के लिए भविष्य की कार्ययोजनाओं पर विस्तृत मंथन के लिये आयोजित सम्मेलन में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण समेत विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रतिभाग किया। उत्तराखंड में पहली बार पहाड़ों की रानी मसूरी में आयोजित हिमालयन कॉन्क्लेव की मेजबानी कर रहे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सम्मेलन में पहुंची केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण समेत केंद्र सरकार अधिकारियों व विभन्न राज्यों के जनप्रतिनिधियों का स्वागत किया। हिमालयन कॉन्क्लेव में पहुंची गणमान्य हस्त्यिों में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, मुख्यमंत्रियों में हिमाचल के जयराम ठाकुर, मेघालय के केसी संगमा, नागालैंड के नेफ्यू रियो, अरुणाचल प्रदेश के उप मुख्यमंत्री चैना मेन, मिजोरम के मंत्री टीजे लालनंत्लुआंगा, त्रिपुरा के मंत्री मनोज कांति देब, सिक्किम के मुख्यमंत्री के सलाहकार डॉ महेंद्र पी लामा, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के सलाहकार केके शर्मा, नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ राजीव कुमार, केंद्रीय जल व स्वच्छता सचिव परमेश्वर अय्यर, एनडीएमएमए सदस्य कमल किशोर, भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर डॉ मधु वर्मा शामिल हैं। हिमालयी राज्यों के सामने कई चुनौतियां हैं। इनमें सतत विकास, पर्यावरण संरक्षण में भागीदारी के मद्देनजर ग्रीन बोनस, पर्यटन एवं वेलनेस, आपदा प्रबंधन, पलायन आदि मुद्दों पर कॉन्क्लेव में चर्चा की गई। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि हिमालयी राज्यों से जुड़े विभिन्न मुद्दों और कॉमन एजेंडे पर अमल करने की जरूरत है। सभी हिमालयी राज्यों की ओर से पहली दफा संयुक्त मसौदा तैयार किया गया है। उन्होंने कहा कि भारत की अधिकतर नदियों का स्रोत हिमालय है। इसलिए प्रधानमंत्री के जल संचय अभियान में हिमालयी राज्यों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने वन संसाधनों के मौद्रिक मूल्यांकन के आधार पर उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस का हक देने की जरूरत पर बल दिया है। कान्क्लेव में उत्तराखंड, हिमाचल, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल, असम, नागालैंड, सिक्किम व जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधियों ने हिमालयन कॉन्क्लेव में ग्रीन बोनस को लेकर 11 पर्वतीय राज्य पुरजोर पैरवी की है। कॉन्क्लेव में पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज धन्यवाद ज्ञापित करते हुए हिमालयी राज्यों में पर्यटन विकास के लिये ठोस नीतियां बनाये जाने के साथ ही केंद्रीय मंत्रालय से आर्थिक सहयोग बढ़ाने की उम्मीद जतायी। हिमालयी राज्यों के सामने सबसे बड़ी चुनौती सतत विकास की है। हिमालयी राज्यों को प्राकृतिक खूबसूरती सौगात में मिली है। यही वजह है कि पर्यटन को इन राज्यों के लिए बेहद संभावनाशील क्षेत्र माना जाता है। इसके बूते इन राज्यों की आर्थिकी में बड़ा बदलाव मुमकिन है। रोजगार और आजीविका के साथ ही पर्यटन व वेलनेस सेक्टर इन राज्यों को वित्तीय रूप से भी सक्षम बना सकता है। पर्यटन क्षेत्र के विकास में बड़ी अड़चन ढांचागत सुविधाओं और सेवाओं की कमी है। ढांचागत विकास के लिए इन राज्यों को केंद्र सरकार से अतिरिक्त मदद की दरकार है। 11 पर्वतीय राज्यों के लिए सबसे बड़ी चुनौती पलायन और आपदा के रूप में है। रोजगार और आजीविका के साधन नहीं होने की वजह से पलायन तेजी से बढ़ा है। सिर्फ उत्तराखंड में ही अब तक 1700 से ज्यादा गांव जनशून्य हो चुके हैं। पर्वतीय गांवों से शहरों की ओर से तेजी से पलायन जारी है। हिमालयी राज्य इस समस्या से पार पाने के लिए अलहदा नीतिगत व्यवस्था चाहते हैं। साथ में आपदा के प्रति बेहद संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों को हर साल हजारों करोड़ का नुकसान उठाना पड़ रहा है। जंगली जानवरों से खेती की सुरक्षा का बड़ा सवाल अनसुलझा है। किसान खेतों, उद्यानों और उपज की सुरक्षा नहीं कर पा रहे हैं। गंगा और यमुना अपनी सहायक नदियों के संग देश को भले ही तृप्त करे, लेकिन खुद हिमालय, उसके पहाड़ और जनता प्यासी और सिंचाई सुविधाविहीन है। प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की पर्यावरणीय सेवाओं के एवज में ग्रीन डेफिसिट राज्यों की ओर से हिमालयी राज्यों को प्रतिपूर्ति मिलनी चाहिए। केंद्र सरकार ने इस पर नीतिगत फैसला अब तक नहीं लिया। पर्वतीय और दुर्गम क्षेत्र होने की वजह से सड़कें, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य तमाम बुनियादी सुविधाओं के विस्तार में पर्यावरणीय अड़चनें तो हैं ही, अधिक धन भी खर्च हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध हिमालय वित्तीय मोर्चे पर बेहद कमजोर है। इस वजह से अपने बूते बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हिमालयी राज्यों के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है। निर्माण कार्यों की लागत काफी ज्यादा है। वहीं निर्माण कार्यों के लिए तय की जाने वाली दर (शिडड्ढूल ऑफ रेट) हिमालयी क्षेत्र में आने वाली लागत के बजाय अन्य मैदानी राज्यों की तर्ज पर तय की जा रही हैं। केंद्रपोषित योजनाओं में भी यही हो रहा है। इस वजह से ये योजनाएं भी पहाड़ चढ़ने पर हांफ रही हैं। हिमालयी राज्य अपने सतत विकास के लिए अलहदा नीति नियोजन चाहते हैं।

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