हरिद्वार संसदीय सीट पर तेज हुई सियासी वर्चस्व की जंग: त्रिवेंद्र और वीरेंद्र के बीच हो सकती है कांटे की टक्कर !
हरिद्वार। हरिद्वार संसदीय सीट का मिजाज बड़ा अनोखा है। इस सीट पर प्रायः बाहरियों का बोलबाला रहा है। 2004 में सपा के स्थानीय प्रत्याशी को जीत मिली थी। इसके बाद बाकी चुनावों में बाहरी प्रत्याशी जीते। आजादी के बाद यह क्षेत्र देहरादून और सहारनपुर संसदीय क्षेत्र का भाग था। सहारनपुर निवासी अजीत प्रसाद जैन और देहरादून निवासी महावीर त्यागी यहां से सांसद रहे। महावीर त्यागी जवाहर लाल नेहरू मंत्रिमंडल में भी शामिल रहे। आपातकाल के पश्चात 1977 में हरिद्वार उत्तर प्रदेश की सुरक्षित संसदीय सीट बनी। हरिद्वार के डॉ. भगवान दास सांसद बने। फिर बिजनौर के गिरधारी लाल और वहीं के सुंदर लाल को सांसदी मिली। सुंदर लाल के असामयिक निधन से 1987 में संसदीय उपचुनाव हुआ। इसी उपचुनाव में ऐसे दो नेताओं का प्रवेश हरिद्वार की राजनीति में हुआ जो बाद में देश की राजनीति में छाए रहे। ये थे रामबिलास पासवान और वर्तमान बसपा सुप्रीमो मायावती। यह और बात है कि दोनों को ही नागल के राम सिंह मांडेबांस ने बुरी तरह हरा दिया। पासवान तो फिर इस सीट पर नहीं आए, लेकिन मायावती 1991 में फिर से भाग्य आजमाने आईं। इस बार भी मांडेबांस ने उन्हें बुरी तरह हरा दिया। दो बार पराजित होने के बाद मायावती ने फिर कभी भी हरिद्वार का रुख नहीं किया। हालांकि, अपना प्रिय नारा ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ पहली बार उन्होंने हरिद्वार के ज्वालापुर में ही दिया था। बाद में यही नारा बसपा के उत्तर प्रदेश और मायावती के देशव्यापी प्रभाव का आधार बना। उत्तराखंड में शामिल किए जाने के बाद 2004 में केवल एक बार जिला निवासी राजेंद्र बाड़ी हरिद्वार के सांसद बने। उसके बाद तो कभी अल्मोड़ा के हरीश रावत और कभी पौड़ी के डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक को हरिद्वार का सांसद बनने का अवसर मिला। निशंक को तो मोदी कैबिनेट के टॉप पांच में शामिल होने का सम्मान भी मिला। मतलब दोनों पूर्व मुख्यमंत्री हरिद्वार का सांसद बन पाने में सफल हुए। वहीं, इस बार फिर से एक और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत हरिद्वार से किस्मत आजमा रहे हैं। पूर्व सीएम हरीश रावत स्वयं तो नहीं आए, उनके बेटे वीरेंद्र रावत चुनाव मैदान में उतारे गए हैं। हांलाकि यहां विभिन्न दलों के सबसे अधिक उम्मीदवारों ने ताल ठोकी हुई है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों के बीच सीधा मुकाबला माना जा रहा है। हांलाकि वह अपने बेटे के चुनाव प्रचार में दिन दोगुनी रात चौगुनी मेहनत भी कर दिया है। 2024 के चुनावी समर में वरिष्ठ नेता एवं अपने पिता की टक्कर के नेता पूर्व मुखमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के समक्ष दमखम के साथ चुनाव में उतरे वीरेंद्र सिंह रावत के सियासी भविष्य को लेकर भी बड़ी चुनौती है। अब देखना दिलचस्प होगा आगामी 4 जून को हरिद्वार की जनता अपने नये सांसद के रूप में किस दल के नेता को आपना आशीर्वाद देती है।