‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’ : मुख्यमंत्री आवास में बाल लोकपर्व “फूलदेई” हर्षोल्लास से मनाया
गांव के हर घर फूले खेलने जाते हैं बच्चे,फूलदेई के गीत गाकर बच्चे मनाते हैं त्योहार
देहरादून (उद संवाददाता)। कुमांऊ गढ़वाल में बाल लोक पर्व फूलदेई उत्साह के साथ मनाया गया। इस अवसर पर बच्चों की टोलियां ने घर-घर जाकर देहरियों पर फूल डालकर शुभकामनाएं दी। लोकपर्व फूलदेई गुरुवार को मुख्यमंत्री आवास में मुख्यमंत्री धामी ने भी सपरिवार धूमधाम से मनाया। सीएम धामी की उपस्थिति में मुख्यमंत्री आवास में रंग बिरंगे परिधानों में सजे बच्चों ने देहरी पर फूल व चावल बिखेरकर पारंपरिक गीत ‘फूल देई छमा देई, जतुक देला, उतुक सई, फूल देई छमा देई, देड़ी द्वार भरी भकार’ गाते हुए त्योहार की शुरुआत की। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने सभी बच्चों को आशीर्वाद देते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की। मुख्यमंत्री धामी ने प्रदेशवासियों को फूल देई के त्योहार की हार्दिक बधाई व शुभकामनायें देते हुए देश व प्रदेश की सुख-समृद्धि की कामना की। उन्होंने कहा कि लोकपर्वों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। गत वर्ष प्रदेश सरकार ने प्रदेशभर में फूलदेई को बाल पर्व के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। उत्तराखंड में फूलदेई का त्योहार चैत्र संक्रांति, अष्ठमी से लेकर अप्रैल वाली बैशाखी तक मानाया जाता है। फूलदेइ के दिन पहाड़ में छोटे-छोटे बच्चे हिन्दू समाज के नव वर्ष का स्वागत करते हैं। फूलदेई का त्योहार बेहद ही खास है इसमें जहां एक ओर उत्तराखंड के लोगों का प्रकृति प्रेम झलकता है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ के लोगों का एक-दूसरे के प्रति प्रेम भी दिखता है। इस त्यौहार की मुख्य कड़ी छोटे-छोटे बच्चे होते हैं। जो गांव के तमाम घरों को सजाते और लोगों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं। देवभूमि में फूलदेई से एक दिन पहले से ही बच्चे इसकी तैयारी शुरू कर देते हैं। छोटे-छोटे बच्चे बुरांश, आड़ू, सरसों, फ्योंली और अन्य फूल तोड़कर लाते हैं। जिसके बाद फूलदेई वाले दिन वो गांव के हर घर में फूल खेलने के लिए अपने फूलों की टोकरी लेकर निकलते हैं। घर की देहरियों पर पहुंचने पर बच्चे फूल देई छम्मा देई जतुक दैला उतके सई… बोलकर देहरियों पर फूल डालते हैं। जिस पर उन्हें चावल, गुड़ और पैसे दिए जाते हैं। इस दौरान बच्चे उस घर में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहे इसकी कामना करते हुए गीत गाते हैं। इसके साथ ही ये कामना भी करते हैं कि साल भर घर के सभी लोग स्वस्थ रहें और घर में किसी प्रकार के अनाज की कमी ना हो।
उत्तराखंड के कई स्थानों पर बच्चे एक साथ एक समूह में घोघा देवता यानी कि फूलदेई की डोली को भी सजाते हैं और बसंत गीतों के साथ झूम-झूमकर नचाते हैं। इसके साथ ही फूलदेई के आठवें दिन बच्चों द्वारा सभी घरों से भोजन सामग्री व पूजा सामग्री को इकट्ठा किया जाता है और एक सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। बच्चों द्वारा इस भोज का भोग सबसे पहले घोघा देवता को लगाया जाता है। जिसके बाद ही बच्चे इसे खाते हैं। फूलदेई के बारे में कई धार्मिक मान्यताएं भी हैं। एक बार भगवान शंकर तपस्या में लीन हो गए इस दौरान कई ऋतुएं चली गई। ऐसे में देवताओं और गणों की रक्षा के लिए मां पार्वती ने चैत्र मास की संक्रांति के दिन कैलाश पर घोघिया माता को पुष्प अर्पित किए। इसके बाद से ही चैत्र संक्रांति पर फूलदेई का पर्व मनाया जाने लगा। जबकि गढ़वाल की केदारघाटी में कहा जाता है कि एक बार भगवान कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी में विहार कर रहे थे। तभी देवी रुक्मिणी भगवान कृष्ण को खूब चिढ़ाती हैं। जिससे भगवान कृष्ण रूठ जाते हैं और कहीं जाकर छिप जाते हैं। तो देवी रुक्मणी उन्हें ढूंढती है लेकिन उन्हें कृष्ण भगवान नहीं मिलते और वो ढूंढ-ढूंढ कर परेशान हो जाती हैं। तब देवी रुक्मिणी छोटे बच्चों को बुलाती हैं और सबकी देहरियों को फूलों से सजाने को कहती हैं। ताकि बच्चों द्वारा फूलों से स्वागत देख कर भगवान कृष्ण गुस्सा छोड़ दें। बच्चों की फूलों की सजाई देहरी व आंगन देखकर भगवान कृष्ण का गुस्सा खत्म हो जाता है और वो सामने आ जाते हैं। तभी से फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।
फूलदेई के गीत गाकर बच्चे मनाते हैं त्योहार
कुमाऊं में –
फूलदेई छम्मा देई ,
दैणी द्वार भर भकार।
यो देली सो बारम्बार ।।
फूलदेई छम्मा देई
जातुके देला ,उतुके सई ।।
गढ़वाल में –
ओ फुलारी घौर।
झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।