दुग्ध क्रांति: देश में दूध उत्पादन में हुई सर्वाधिक वृद्धि,फलने-फूलने लगा है दुग्ध पदार्थो का कारोबार
पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की रिपोर्ट ने मवेशियों से दूध उत्पादन और और उसकी खपत की अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने की रिपोर्ट जारी की है। भारत दूध उत्पादन में दुनिया में पहले सोपान पर पहले से ही है और विश्व के कुल दूध उत्पादन में भारत 24 प्रतिशत का योगदान दे रहा है। बीते 9 वर्षों में देश में दूध का उत्पादन लगभग 57 प्रतिशत बढ़ा है। नतीजतन प्रति व्यत्तिफ दूध की उपलब्धता 2022-23 में 459 ग्राम प्रतिदिन हो गई है। 9 वर्ष पहले यह उपलब्ता महज 300 ग्राम प्रति व्यत्तिफ प्रतिदिन थी। जबकि कुछ साल पहले दुग्ध उत्पादों के आयात की संभावना जताई जाने लगी थी। किंतु अब पशु संवर्धन के किए गए प्रयास रंग दिखाने लगे हैं। बीते एक दशक में दूध के उत्पादन एवं उत्पादकता में आजादी के बाद से सर्वाधिक वृद्धि हुई है। दूध की उपलब्धता बढ़ी तो भारतीयों के खान-पान की आदत में दूध और उसके उत्पादों का सेवन व खपत भी बढ़ गई। अब प्रत्येक भारतीय दुनिया में औसत खपत में से 65 ग्राम अधिक दूध पीने लगा है। दूध की वैश्विक औसत खपत फिलहाल 394 ग्राम प्रति व्यत्तिफ है। वैसे तो भारत में दूध पशुपालक उत्पादित करते हैं। उनका यह परंपरागत धंधा है, जिसे वे ज्ञान परंपरा से जानते व सीखते हैं। भारत में दूध, दही, घी और मक्खन का उत्पादन प्राचीन समय से चला आ रहा है। भगवान कृष्ण की बाल लीलाएं दही, माखन की चोरी और फिर कंस को गोकुल से कर के रूप में दुग्ध उत्पादन नहीं भेजने के विरोध से जुड़ी हैं। दूध को लेकर कृष्ण के नेतृत्व में ग्वाल समाज का दूध के परिप्रेक्ष्य में शायद यह क्रांति का पहला उद्घोष था। इसके बाद ब्रिटिश साम्राज्य में यह विरोध देखने में आया और सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में इसने श्वेत या दुग्ध क्रांति के रूप में जन्म लिया। दरअसल जिस कैरा क्षेत्र से श्वेत क्रांति की शुरूआत हुई थी, वही आजादी के बाद खेड़ा जिला बना और वर्तमान में इसे ही आनंद के नाम से जाना जाता है। फिरंगी हुकूमत के दौरान पॉल्सन नाम की ब्रिटिश कंपनी का इस क्षेत्र का दूध खरीदने पर एकाधिकार था। कंपनी दुग्ध उत्पादकों का लगातार शोषण कर रही थी। इस शोषण की शिकायत किसानों ने सरदार पटेल से की। पटेल गोधन, गोरस और गोदान की हिंदू जीवन शैली के अनुयायी थे। पटेल शोषण की जानकारी से बेचौन हुए और लौहपुरुष के अवतार में आ गए, उन्होंने तत्काल कंपनी को दूध बेचने से मना कर दिया। उनका मानना था कि जब कंपनी को दूध मिलेगा ही नहीं, तो उसे किसानों की शर्तें मानने को मजबूर होना पड़ेगा। साथ ही पटेल ने सभी किसानों को मिलकर सहकारी संस्था बनाकर स्वयं दूध और दूध के उत्पाद बेचने की सलाह दी। पटेल के इस सुझाव से किसान सहमत हो गए और अंग्रेजों को दूध न देने की चुनौती दे दी। बाद में 1946 में पटेल ने अपने भरोसे के साथ ही मोरारजी देसाई और त्रिभुवन दास पटेल की सहायता से भारत की पहली दुग्ध सहकारी संस्था की स्थापना की, इसे ही बाद में जिला सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ के नाम से जाना गया। 250 लीटर दूध का प्रतिदिन कारोबार करने वाली इसी संस्था को आज विश्वव्यापी संस्था ‘अमूल‘ के नाम से जाना जाता है। मिशिगन स्टेट विवि से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करके भारत लौटे वर्गीज कुरियन ने सरकारी नौकरी छोड़कर इस संस्था में काम शुरू किया और भारत का पहला दूध प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किया। इसके बाद किसानों की ज्ञान परंपरा और कुरियन के यांत्रिक गठबंधन से इस संस्था ने उपलब्धि का शिखर चूम लिया।बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह-उत्पाद दही, मठा, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं, किंतु वह दूध ही है, जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, मठा, घी, मक्खन, मावा, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे आठ करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आजीविका जुड़ी है। दूध उत्पादन में ग्रामीण महिलाओं की अहम् भूमिका रहती है। रोजाना दो लाख से भी अधिक गांवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुंचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे शहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक भी दूध बेचने का काम करते हैं। वर्ष 2013-14 के दौरान देश में 1463 लाख टन दूध उत्पादन हुआ था, जो 2022-23 में बढ़कर 2306 लाख टन हो गया है। स्वतंत्रता के बाद दूध उत्पादन में यह सबसे अधिक वृद्धि है। भारत में प्रत्येक वर्ष दूध उत्पादन 5.9 प्रतिशत से ज्यादा की दर से बढ़ रहा है, जबकि दुनिया में दूध की औसत वृद्धि दर्ज प्रतिवर्ष मात्र दो प्रतिशत है। भारतीय दूध की मांग विदेश में भी बढ़ रही है। लगभग 150 देशों में भारत के सह दुग्ध उत्पादों की मांग बनी हुई है। पिछले वर्ष 65 लाख टन दुग्ध उत्पादन का निर्यात हुआ था। इस निर्यात के 2024 में और बढ़ने की उम्मीद हैं। केंद्रीय पशुपालन एवं डेयरी राज्य मंत्री संजीव बालियान का कहना है कि ‘देश की अर्थव्यस्था में डेयरी सेक्टर का योगदान पांच प्रतिशत है और यह लगभग आठ करोड़ लोगों के रोजगार का बारहमांसी मजबूत साधन है।‘ दूध की इस बड़ी अर्थव्यस्था में समृद्धि का रास्ता राष्ट्रीय गोकुल मिशन के अस्तित्व में आने के बाद खुला है, इस योजना की शुरूआत दिसंबर 2014 में हुई थी। लक्ष्य था, वैज्ञानिक तरीके से देसी गो-जातीय प्रजातियों का विकास और संवर्धन। फलस्वरूप राज्यों में गायों और भैंसों के परंपरागत प्रजनन तरीके से अलग किसानों के दरवाजे पर कृत्रिम गर्भाधान और आईवीएफ सेवाएं उपलब्ध कराईं। इसके नतीजे कारगर निकले। इसके पहले देश में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के नजरिए से वर्ण-संकर प(ति पर जोर दिया जाता था, इससे वृद्धि तो हुई लेकिन गति अत्यंत धीमी रही। अतएव गोवंश वृ(ि के नए वैज्ञानिक तरीके अपनाए गए। दूध की इस बढ़ती खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली Úांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की ‘तिरूमाला डेयरी‘ को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार विश्वस्तर पर करीब 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है। अमेरिका भी अपने देश में बने सह उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। हालांकि फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है। अमेरिका चीज पनीर भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहरियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गौ-सेवक व गउ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। अमेरिका में गायों को मांसयुत्तफ चारा खिलाया जाता है, जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैंसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों,लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता ? लिहाजा अमेरिका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है। लेकिन इससे इतना तो तय होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें हमारे देसी दूध के कारोबार को हड़पने में लगी हैं। इतना व्यापक और महत्वपूर्ण व्यवसाय होने के बावजूद इसकी गुणवत्ता पर निगरानी के लिए कोई नियामक तंत्र देश में नहीं है। इसलिए दूध की मिलावट में इंसानी लालच बढ़ी समस्या बना हुआ है। हालांकि दूध में मिलावट का पता लगाने के लिए भारत में ही निर्मित एक नए यंत्र का निर्माण हुआ है। इसे वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् और केंद्रीय इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान ने मिलकर बनाया है। यह तकनीक कोई दूसरा देश अब तक विकसित नहीं कर पाया है। मिलावट की मामूली मात्रा को भी यह यंत्र पकड़ने में सक्षम है। साथ ही महज 40-45 सेकेंड में ही दूध के नमूने की जांच हो जाती है। इस यंत्र से दूध के नमूने को जांचने का खर्च केवल 5-10 पैसे आता है। इस नाते यह तकनीक बेहद सस्ती है। लेकिन इसकी कोई अभी तक सार्थक कोई उपयोगिता सामने नहीं आई है। हालांकि केवल दूध के नमूने की जांच भर से शुद्ध दूध की गारंटी संभव नहीं है। वह इसलिए, क्योंकि मवेशियों को जो चारा खिलाया जाता है, उसमें भी दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं। यही नहीं दुधारू मवेशी दूध ज्यादा दें, इसके लिए ऑक्सीटॉसिन इंजेक्षन लगाए जाते हैं। इनसे दूध का उत्पादन तो बढ़ता है, लेकिन अशुद्धता भी बढ़ती है। दूध में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने के लिए कंपनियों में जो डिब्बाबंद चारा बनाया जाता है, उसमें मेलामाइन केमिकल का उपयोग किया जाता है,जो नाइट्रोजन को बढ़ाता है। जाहिर है, दूध की शुद्धता के लिए कारखानों में किए जा रहे इन उत्पादों पर भी प्रतिबंध लगाना जरूरी है। क्योंकि दूध के नमूने की जांच में वह दूध भी अशुद्ध पाया गया है, जिसमें ऊपर से कोई मिलावट नहीं की जाती है। यह अशुद्धता चारे में मिलाए गए रसायनों के द्वारा सामने आई है।मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जाती है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के कारण मिलावटी दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करीब एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रुपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह-उत्पादों की मांग व खपत लगातार बनी रहती है।
-प्रमोद भार्गव,लेखक/पत्रकार