जब ‘जमीन’ ही नहीं रहेगी तो ‘संस्कृति’ कहां से रहेगी? उत्तराखंड में फिर तेज हुई भू कानून और मूल निवास के मुद्दे की जंग
नया भू-कानून बनाने के समर्थन में उतरे पूर्व सीएम हरीश रावत, प्रदेश का उत्तरांचल नाम बदलने पर भी उठाए सवाल
देहरादून(उद ब्यूरो)। देवभूमि उत्तराखंड में मौजूदा धामी सरकार एकबार फिर नये भू कानून और मूल निवास की मांग को लेकर चौतरफा घिरती हुई दिख रही है। नये साल के आगमन आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव के बीच राज्यवासियों के हितों से जुड़ी की प्रमुख मांगों को भुनाने के लिए राजनीतिक और स्थानीय दलों के लोगों की प्रतिक्रियाओं से सियासी वातावरण भी गर्म हो रहा है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत उत्तराखंड के लिए नए भू-कानून बनाने के समर्थन में उतरे हैं। उन्होंने कहा कि दुख की बात यह है कि जहां भूमि बेचने के बारे में सोचा भी नहीं जाना चाहिए था, वहां की जमीन बिक रही हैं। बुधवार को सोशल मीडिया पर भू कानून और मूल निवास को लेकर साझा की गई अपनी एक और फेसबुक पोस्ट में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने गत 24 दिसंबर को भू-कानून में संशोधन की मांग को लेकर रैली का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि रैली में उमड़े हुजूम का आम दर्द यही था कि कहीं ऐसा न हो कि हमें हमारी ही मिट्टी से अलग कर दिया जाए। हमारी थाती ही हमारे लिए पराई न हो जाए। हरीश रावत ने कहा कि केंद्र सरकार ने जब प्रदेश का नाम उत्तराखंड से बदलकर उत्तरांचल किया तो ऐसे ही पहचान के संकट से बेचैनी उत्पन्न हो गई थी। आज उत्तराखंड की पहचान का यह दर्द प्रदेश के हर क्षेत्र का है। उन्होंने कहा कि हर मुकाम पर एक उत्तराखंडी संस्कृति है जो हमारी साझी संस्कृति के रूप में गौरवान्वित करती है। जब जमीन ही नहीं रहेगी तो संस्कृति कहां से रहेगी। माटी में ही तो चीजें अंकुरित होती हैं। जब माटी नहीं रहेगी तो भूमिपुत्र कहां से रहेंगे। इस मिट्टी के सत्व की रक्षा के लिए उत्तराखंड को एकजुट रखना है। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि एक आंकड़े के अनुसार पिछले पांच वर्षों में एक लाख से अधिक रजिस्ट्री विभिन्न जिलों में अस्तित्व में आई हैं। उन्होंने सवाल दागा कि ये कौन लोग हैं, इसकी सूची जिलाधिकारियों के पास भी नहीं है। वनांतरा रिसॉर्ट आम बात हो गई है जो मन को कचोटती है। उत्तराखंड मांगे नया भू-कानून ;पार्ट-2 – भूमि के महत्व को वर्गीकृत करना तो देवताओं के लिए भी कठिनतर रहा है, इसलिये शास्त्रों में कहा गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, स्वर्ग से भी देवताओं ने और महापुरुषों ने गांव की माटी को महत्वपूर्ण माना है। फिर उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता है, जहां के हर गाड़ में शिवालय व हर धार में भवानी का वास हो, जहां की अदिष्टदात्री नन्दा ;पार्वती हो उस धरती की मिट्टी का मूल्य यदि उसके बेटे-बेटियां नहीं समझ रहे हैं तो फिर हमारी कोई मदद नहीं कर सकता है। यदि हम विशुद्ध वाणिज्यिक दृष्टिकोण से भी देखें तो भी हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आने वाले दिनों में हमारे उत्तराखंड के माटी के प्राकृतिक उत्पाद मूल्यवान से बहुमूल्य होते जाएंगे। मैं इस भूमि के उत्पादों के वाणिज्यिक महत्व को इंगित करने के लिए एक-दो सामान्य से उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं। भांगुला हैम्प, कण्डाली ;बिच्छू घास, गेठी की लकड़ी, तिमरू, थुनेर, चन्द्रा, बद्री बेरी, जम्मू गंदरायणी, कीड़ा जड़ी, जखिया, चिरैता की घास के वर्तमान समय में महत्वहीन उत्पादों के भावी वाणिज्यिक महत्व को सामने लाऊं तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि आपकी मिट्टी में सोना लिपटा है। हमने हैम्प जिसको भांगुला भी कहा जाता है, कण्डाली, भीमल और रामबांस को भी कुछ सीमा तक, हर रेशा प्रजाति जिसमें बांस, रिंगाल आदि सम्मिलित हैं उनको अपनी गरीबी उन्मूलन का एक सशत्तफ माध्यम के रूप में ढूंढा और अपनी राजनीति को दांव पर लगाकर कमर्शियल हेंप के लिए कानून बनाया। अब पता चला है कि हेंप के रेशे और औषधीय गुणों के अतिरित्तफ गुणों के लिए उसके वाणिज्यिक दोहन के लाइसेंस दिए जा रहे हैं। मुझे डर है एक दिन हमारा भांगुला, हमारा बिच्छू घास भी हमारा नहीं रह जाएगा। क्योंकि जितनी ऊंची चोटी होगी उसके निकट उतना ही बहु उपयोगी भांगुला, बिच्छू घास आदि पैदा होगा। क्लाइमेट चेंज ने हमारे लिए जहां हजारों चुनौतियां खड़ी की हैं, वहीं उच्च हिमालयी क्षेत्रों के भौगोलिक और जैविक महत्व को भी आगे बढ़ाया है। कल तक जिन क्षेत्रों में केवल फाफर और जौं आदि पैदा होते थे आज उन क्षेत्रों में आलू, सेब आदि पैदा हो रहे हैं। उसी प्रकार जिन क्षेत्रों में कल तक नारंगी, सेंतरे, नींबू आदि पैदा होते थे, आज उन क्षेत्रों में आम और लीची भी उत्पादित हो रही हैं। इस परिवर्तन का उच्च हिमालयी क्षेत्रों को बड़ा सार्थक लाभ भी मिल रहा है, बसर्ते हम इन क्षेत्रों में भूमि के स्वामित्व को परंपरागत लोगों के हाथ में ही रहने दें! यह रह पाएगा, एक बड़ी चुनौती है! जो लोग अपनी वाणिज्यिक दोहन के लाइसेंस दिए जा रहे हैं, वो लोग अपनी आर्थिक लाभ के लिए यहां आ रहे हैं, मैं उनको दोष नहीं दे रहा हूं, दोष हमारी नजर का है। गलतियां होती हैं, सुधारनी पड़ती हैं। जब 2014 के आस-पास सोलर एनर्जी की बड़े पैमाने पर बात उठी तो हमने भगवानपुर के पास में खेलपुर, खाताखेड़ी, उधर कुछ झबरेड़ा के क्षेत्र में और कुछ अन्य क्षेत्रों में ऐसी दो-तीन सौ मेगावाट की परियोजनाएं सब स्थापित की, इनके स्थापित होने के 6 महीने बाद जब मैं यह देखने पहुंचा कि इन परियोजनाओं में कितने लोगों को नौकरी मिल रही है तो मुझे आश्चर्य हुआ कि 100 बीघा जमीन में लगे प्रोजेक्ट में केवल 11 लोग कार्यरत थे। मैंने उसी क्षण इस आईडिया पर आगे नहीं बढ़ने का फैसला लिया। आज हम कुछ सबक सीखने को तैयार नहीं हैं। वर्ष 2018 में भी एक बड़ा इन्वेस्टमेंट इवेंट हुआ, सवा लाख करोड़ रुपए का इन्वेस्टमेंट आने का दावा किया गया। आज अभी-अभी एक और ऐसा ही इन्वेस्टमेंट इवेंट हुआ है जिसमें साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए की पूंजी निवेश की बात हो रही है। ज्ञातव्य है कि यह उस राज्य में हो रही है, जिस राज्य में पहले से ही देश और दुनिया के नामचीन उद्योग स्थापित हैं। हमारे राज्य में आज उद्योग बंद होने की होड़ भी लगी हुई है, bhel जैसी संस्था जिसके पास हरिद्वार में विशाल भूखंड है, वर्ष 2014 के अपेक्षाकृत 1/4 कार्य बल से काम चला रहा है। विचारणीय प्रश्न है कि भूमि उपलब्ध कहां है? हमने वर्ष 2016 में उधमसिंहनगर में दो फार्मों की शिलिंग की जमीन को अधिकृत किया, काशीपुर में हिंदुस्तान पेपर मिल को दी गई जमीन को बाय बैक किया तथा गदरपुर चीनी मिल की जमीन को अधिकृत कर, इन सभी भूखंडों का प्रबंधन सिडकुल को सौंपा। आज की सरकार की नजरें इसी भू-खंड पर गड़ी हुई है। हमने इन भू-खंडों के आवंटन के लिए तीन मानक निर्धारित किए थे। 1 दैवीय आपदा पीड़ित ;2 भूमिहीन ;3 उन उत्तराखंडी उद्यमियों जिनमें अपने उद्यम लगाने की क्षमता विकसित हो गई हो। मैं भूमि उपयोग निर्धारित करने के सरकार के अधिकार को चुनौती नहीं दे रहा हूं, प्रश्न औचित्य का है? कल यदि उत्तराखंड के उद्यमी उद्योग लगाने में सक्षम होंगे तो उन्हें क्या हम भूमि दे पाएंगे? दैवीय आपदा पीड़ितों को बसाने की चुनौती खड़ी होगी तो क्या हम उसका समाधान ढूंढ पाएंगे? हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बहुत सारे इंवेस्टमेंट प्रतिक्षित हैं। जिसमें मेट्रो सुविधाओं का सृजन, फ्रलाई ओवर्स, रिवर फ्रट का निर्माण, जल संचय हेतु विशाल जलाशयों का निर्माण सम्मिलित है। क्या सरकार इन क्षेत्रों में यह इन्वेस्टमेंट लेकर आ रही है? यदि आ रही है तो हम उसका स्वागत करना चाहेंगे। मगर जिस राज्य के पास अपने कुल क्षेत्रफल का मात्र 25 प्रतिशत हिस्सा जीवन यापन की समस्त गतिविधियों के लिए उपलब्ध हो तो उस राज्य को कबीर दास जी के इस दोहे को याद करना चाहिए तेते पांव पसारिये, जेती लांबी सौर। भूमि सुधार के क्षेत्र में हमने कई दूरगामी महत्व की पहलें प्रारंभ की, पर्वतीय चकबंदी के लिए कानून बनाया, क्लस्टर बेस खेती को बढ़ावा देने के लिए लीजिंग पॉलिसी तैयार की, वर्ग-3, वर्ग-4 जैसे कई खेती के किसान विरोधी वर्गीकरणों को समाप्त करने का फैसला लिया। दलित और कमजोर वर्ग के कब्जे की जमीनों को नियमित करने का फैसला भी लिया गया। चकबंदी को आगे बढ़ाने के लिए 14 साल बाद चकबंदी और राजस्व अमीनों आदि की भर्तियां प्रारंभ की। मेरी इच्छा थी कि लंबे समय से प्रतिक्षित जमीन के बंदोबस्त को भी प्रारंभ करें। आसन्न चुनावों के कारण हमें यह फैसला टालना पड़ा। यदि हमारे बने हुए चकबंदी कानून आपको पसंद नहीं आ रहा है या हमारे द्वारा तैयार की गई नियमावलियों में आप संशोधन करना चाहते हैं, यह आपका अधिकार क्षेत्र है। आज तो मौलिक प्रश्न यह पैदा हो गया है कि क्या हमारी जमीन बचेगी? मगर ऐसे समय में एक अपवाह फैलाई जा रही है, कहा जा रहा है कि जो जमीन10 साल तक खाली रहेंगी उनको अलग से चिन्हित किया जाएगा, येलो कलर या कुछ और कलर उसके लिए मिजाज किया जा रहा है। संदेश यह दिया जा रहा है कि जो जमीनें खोदी नहीं जा रही हैं जिनका कृषि उपयोग नहीं हो रहा है या वाणिज्यिक उपयोग नहीं हो रहा है, उन जमीनों को चिन्हित किया जाएगा, जमीन मालिकों के मन में भी डर पैदा किया जा रहा है ताकि जो जमीन नहीं भी बेचने वाला है वह भी औने-पौने धाम पर अपनी भूमि को बेचने को तैयार हो जाए। कुछ बुद्धमान अधिकारी सरकार को यह राय दे रहे हैं, सरकार राय को मानने जा रही है या नहीं, यह तो सरकार ही स्पष्ट कर सकती है, मगर उत्तराखंड अब बेचौन है और वह भू-कानून चाहता है। इसीलिए उसकी कल्पनाएं अब अकेले भू-कानून तक सीमित नहीं हैं, वह उससे आगे बढ़ना चाहते हैं। बिना सभी चीजों पर गहराई से विचार किये वह आगे छलांग लगाना चाह रहा है। समय की पुकार है कि परेड ग्राउंड देहरादून के स्वरों को मुख्यमंत्री जी को उसका वीडियो मंगवा कर बड़े गौर से सुनना चाहिए। अधिकारियों के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी मैं आग्रह पूर्वक कहना चाहूंगा कि भू-कानून एक सैद्धतिक प्रश्न है? इस प्रश्न का समाधान राजनीतिक स्तर पर ही निकल जाना चाहिए। अधिकारी ऐसे निकाले गये नीतिगत निर्णय को क्रियान्वित करने का रास्ता अवश्य ढूंढ सकते हैं। हम वत्तफीय तौर पर इस मामले को लटकाने के लिए ऐसी कमेटियां बनाकर और उलझाव ही पैदा करेंगे। पहले से ही तीन कमेटियां गठित हो चुकी हैं, वह कहां तक आगे बड़ी हैं तथ्य सार्वजनिक नहीं हैं!! एक संवेदनशील प्रश्न पर चलताऊ रवैया अपनाना उचित नहीं रहेगा। माननीय मुख्यमंत्री जी चाहें इस विषय में सर्वदलीय यहां तक कि सर्वपक्षीय परामर्श भी आहूत कर सकते हैं। राजनीति में सर्वदलीय यहां तक की सर्वपक्षीय परामर्श का अपना महत्व है। भू-कानून और इससे जुड़े हुये सवाल संवेदनशील हैं। अभी राज्य के सम्मुख आने वाले समय में और अधिक संवेदनशील मामले आने जा रहे हैं, इनमें से एकाध मामला तो सीधे-सीधे राज्य निर्माण की अवधारणा पर चोट करेगा। यूं भाजपा हमेशा संवेदनशील मुद्दों की राजनीति करती है। चाहे वह मामला जनसंख्या असंतुलन का हो या कॉमन सिविल कोड का हो, भाजपा ने हमेशा बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, बढ़ते पलायन, असहिष्णुता, बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के मुद्दों से कन्नी काटने का प्रयास किया है। मगर नये भू-कानून की मांग संवेदनशील होने के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक व राज्य निर्माण की भावना से जुड़ा हुआ मामला है। यदि हम इस मामले को और अधिक टालेंगे तो उत्तराखंड अपने पांव में ही कुल्हाड़ी मारेगा। हम सबका मिला-जुला प्रयास होना चाहिये कि ऐसी स्थिति आने से बचा जाय। जय हिन्द!