औपनिवेशिक कानूनों से मिली मुक्ति: नए कानून में नाबालिग से दुष्कर्म और मॉब लीचिंग के लिए दी जाएगी फांसी की सजा

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अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहे औपनिवेशिक कानूनों से आखिरकार जनता को मुक्ति मिल गई। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने गुलामी के प्रतीक माने जाने वाले तीन प्रमुख कानूनों में आमूलचूल बदलाव के विधेयक लोकसभा एवं राज्यसभा से पारित करा लिए। इनमें परिवर्तन की प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी, क्योंकि फिरंगी हुकूमत के समय वजूद में लाए गए ये कानून स्वतंत्रता सेनानियों को अधिकतम दंड देने की मानसिकता से बनाए गए थे। जबकि कोई भी विधि सम्मत प्रक्रिया दंड की अपेक्षा न्याय के सारोकारों से जुड़ी होनी चाहिए। शाह ने इन विधेयकों पर संसद में चर्चा करते हुए कहा कि इन कानूनों के लागू होने के बाद दुनिया में सबसे अधिक आधुनिक आपराधिक न्याय प्रणाली भारत की होगी, क्योंकि अब इनकी आत्मा में भारतीयता नीहित कर दी गई है। उन्होंने अंग्रेजों के और अब के कानून में फर्क बताते हुए कहा कि अंग्रेजों के जमानों में बने कानून का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना था। इसलिए इसमें दंड को मूल में रखा गया था, किंतु अब न्याय पर जोर होगा। वैसे भी भारत में न्याय की अवधारणा बहुत पुरानी है और ये कानून उसी अवधारणा की भावना पर आधारित हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से दिए संबोधन में पांच प्रण किए थे, इनमें एक प्रण गुलामी की निशानियों को खत्म करना था। कानून संबंधी पारित विधेयक उसी परिप्रेक्ष्य में हैं। इन नए कानूनों के अंतर्गत दंड अपराध रोकने की भावना पैदा करने के लिए दिया जाएगा। ये नए कानून महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर केंद्रीत हैं। अब नए कानून में नाबालिग से दुष्कर्म और मॉब लीचिंग के लिए फांसी की सजा दी जाएगी। राजद्रोह कानून ब्रिटिश सत्ता को कायम रखने के लिए था, इसे अब खत्म किया जा रहा है। कुछ प्रचलित धाराओं की संख्या भी बदली गई है। जैसे धोखाधड़ी 420 धारा के अंतर्गत थी, इसे अब धारा 316 के रूप में जाना जाएगा। इसी तरह बलात्कार की धारा 376 को 63 में बदला जाएगा। प्रमुख रूप से अंग्रेजी राज का पर्याय बने तीन मूलभूत कानूनों में अमूलचूल परिवर्तन किए गए हैं। 1860 में बने इंडियन पेनल कोड को अब भारतीय न्याय संहिता, 1898 में बने दंड प्रक्रिया संहिता ;सीआरपीसीद्ध को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और 1872 में बने इंडियन एविडेंस कोड को अब भारतीय साक्ष्य संहिता के नाम से जाना जाएगा। कुल 313 धाराएं बदली गई हैं। इनमें चार धाराएं सबसे ज्यादा असरकारी साबित होंगी। एक, राजद्रोह कानून से ‘राजद्रोह‘ शब्द विलोपित कर दिया जाएगा। नए प्रारूप में धारा 150 के तहत आरोपी को सात साल की सजा से लेकर उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है। दो, मॉब लीचिंग यानी उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या और हिंसा के लिए अलग से सजा का प्रावधान किया गया है। इसे पंथ निरपेक्ष रखा गया है। क्योंकि कभी-कभी चोर को भी भीड़ मार देती है। झारखंड और अन्य कई अशिक्षित क्षेत्रों में महिलाओं को डायन बताकर समूह मार देता है। इन हत्याओं पर अब मॉब लीचिंग कानून लागू होगा। अभी तक ऐसे मामलों में हत्या की धारा 302 और दंगा या बलवा की धाराएं 147-148 के तहत कार्यवाही होती है। तीन, नाबालिग से दुष्कर्म या पहचान छिपाकर किए गए दुष्कर्म के आरोप में 20 साल का कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। विरोध नहीं करने के अर्थ का आशय सहमति नहीं निकाला जाएगा। मौजूदा स्थिति में नाबालिग से दुष्कर्म पर न्यूनतम सजा में सात साल की व्यवस्था है। इसी तरह राज्यों को अब असली पहचान छिपाकर संबंध बनाने वाले अपराधियों के लिए ‘लव जिहाद‘ जैसा पृथक कानून बनाने की जरूरत नहीं है। प्रस्तावित कानून में गलत पहचान बताकर नौकरी, पदोन्नति और अन्य प्रलोभन दिलाने के झूठे वादे कर दुष्कर्म के अंजाम को सजा के दायरे में लाया गया है। लव जिहाद इसी के अंतर्गत आएगा। चौथा, देश में पहली बार छोटे-मोटे अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा का क्रांतिकारी प्रावधान किया गया है। इन अपराधों में नशे में हंगामा और पांच हजार से कम की चोरी करने के आरोप में सामुदायिक सेवा की सजा दी जाएगी। ऐसी सजा में सार्वजनिक स्थलों पर पौधे लगाने जैसे प्रावधान शामिल हैं। हालांकि उच्च न्यायालय ग्वालियर ने इस तरह की सजाएं सुनाई हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन 1860 में अस्तित्व में आए औपनिवेशिक कानून ‘राजद्रोह‘ में किया गया है। इसके औचित्य पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। संसद में भी इस धारा के औचित्य पर कई बार प्रश्नचिन्ह खड़े किए गए हैं। लेकिन बदलाव के इस प्रस्ताव से पहले कोई भी सरकार ने इस कानून में परिवर्तन की हिम्मत नहीं जुटा पाई। संप्रग सरकार में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब 2012 में राज्यसभा में प्रस्तुत एक निजी विधेयक में सांसद डी राजा ने कहा था कि ‘देश में चले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के दमन और उन पर अमानुशिक अत्याचार के लिए फिरंगी हुकूमत ने 1860 में देशद्रोह का कानून बनाया था। इसे और कठोर 1870 में धारा 124-ए को दण्ड प्रक्रिया संहिता में शामिल कर लिया गया था, लिहाजा इस कानून में अब बदलाव की जरूरत है।‘ लेकिन इस निजी विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। दरअसल यही वह कालखंड था, जब 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पूरे राष्ट्र में एकजुटता के साथ उभरा था। इसमें आमजन की बड़ी संख्या में भगीदारी थी। इसी आमजन को दंडित करने के लिए ही इस दमनकारी कानून को वजूद में लाया गया था। यह सब जानते हुए भी तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने धारा 124-ए को ‘आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी देशद्रोही समस्याओं से निपटने के लिए आवश्यक और संविधान सम्मत‘ बताया था। सरकार ने इस समय संसद में यह भी स्पष्ट किया था कि समुचित दायरे में रहकर सरकार की आलोचना करने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाए, तब यह धारा प्रभावी हो सकती है।‘ तब बहस में भाजपा समेत कई दलों के सांसदों ने मौजूदा सरकार के इस रुख का समर्थन किया था। इस धारा के आतंकवाद और उग्रवाद के परिप्रेक्ष्य में चले आ रहे महत्व के चलते ही, इसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी नहीं हटा पाए थे, जबकि वे इसे हटाए जाने के पक्ष में थे। धारा 124-ए के अंतर्गत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष तौर से नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। इस धारा के तहत दोशी पर आरोप साबित हो जाए तो उसे तीन साल के कारावास तक की सजा हो सकती है। 1962 में शीर्ष न्यायालय के सात न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ‘केदारनाथ बनाम बिहार राज्य‘ प्रकरण में, राजद्रोह के संबंध में ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि ‘विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरूद्ध अव्यवस्था फैलाने या फिर कानून या व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा इेने की प्रवृत्ति या मंशा हो तो उसे राजद्रोह माना जाएगा।‘ इसी परिभाषा की परछाईं में हार्दिक पटेल बनाम गुजरात राज्य से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘यदि कोई व्यक्ति अपने भाषण या कथन के मार्फत विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा फैलाने का आवाहन करता है तो उसे राजद्रोह माना जाएगा।‘ अदालत के इन फैसलों के अनुक्रम में किसी अन्य देश की प्रशंसा, परमाणु संयंत्रों का विरोध, राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े नहीं होना, जैसे आचरण जरूर राजद्रोह नहीं कहे जा सकते हैं, लेकिन ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार,‘ जैसे नारे न केवल राजद्रोह हैं, बल्कि राष्ट्रद्रोही भी है।‘ इस परिप्रेक्ष्य में यह समझ लेना भी जरूरी है कि संविधान का अनुच्छेद 19-1 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी जरूर देता है, लेकिन इस पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी लगाया गया है। नए कानून में पहली बार आतंकवाद की इबारत को पारिभाषित किया गया है। यदि कोई व्यक्ति देश की एकता, अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा को संकट में डालने के इरादे से कोई कृत्य करता है तो उसे नए कानून के हिसाब से सजा मिलेगी। अतएव देश के अस्तित्व को चुनौती देने वाले बाहरी या भीतरी असामाजिक तत्व कानूनी शिकंजे से बचने न पाएं, इसकी व्यवस्था के प्रावधान किए गए हैं। यही कानूनी प्रावधान बृहत्तर सामाजिक हित राज्य को भारत की संप्रभुता, अखंडता तथा राज्य की सुरक्षा से जोड़ते हैं। भारत के विरूद्ध सांप्रदायिक कट्टðरता फैलाने और सरकार के लिए नफरत के हालात बनाने में भारत विरोधी विदेशी ताकतें सोशल मीडिया का मनचाहा एवं गलत दुरुपयोग करती हैं, इसलिए नए कानून में देश तोड़ने की कोशिश करने वाली ताकतों पर अंकुश के लिए कठोर कानूनी प्रावधान नए कानून में हैं।
प्रमोद भार्गव,लेखक/पत्रकार

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