“सिलक्यारा सुरंग” हादसे से उपजा “सवालों का “पहाड़”: जीत के जश्न के बाद अब जवाबदेही एवं सीमा तय करना भी जरूरी
जैसे तैसे बचा लिए गए श्रमिक पर हिमालय का भविष्य क्या कब तक टिका रह पाएगा ?
देहरादून। तकरीबन 17 दिनों के अथक प्रयासों के बाद अंततः सिलक्यारा सुरंग में फसे सभी 41 श्रमिकों को सकुशल बाहर निकाल दिया गया. देश भर में अब तक चलाए गए सबसे बड़े बचाव अभियानों में से एक, के सुखद अंत के बाद जहां सुरंग में फंसे श्रमिकों एवं उनके परिवार में खुशी का माहौल है, वहीं केंद्र सरकार सहित उत्तराखंड सरकार के तमाम अधिकारियों एवं विभिन्न एजेंसियों ने भी अब जाकर कहीं राहत की सांस ली है. इस सुरंग हादसे ने समाज के सामने विज्ञान की सीमाएं रेखा तो खींची ही है, साथ ही इस तथ्य को भी बड़ी ही स्पष्ट से रेखांकित किया है कि प्रकृति से किए जाने वाले अनियंत्रित एवं अवैज्ञानिक छेड़छाड़ का खामियाजा मानव जाति को भुगतना ही होगा. वैसे तो सरकार सिलक्यारा सुरंग हादसे के की मुख्य वजहों का पता तो लगाएगी ही, लेकिन श्रमिकों की सकुशल वापसी के पश्चात, उत्तराखंड के सरकारी हल्के में “अंत भला तो सब भला का” जो वातावरण फिलवक्त पसरा हुआ है, उससे इस बात का आश्वासन तनिक भी नहीं मिलता की सुरंग हादसे के पीछे की मुख्य वजहो को ईमानदारी से तलाशा जाएगा और इसकी जवाब दे ही तय की जाएगी .जबकि वक्त का तकाजा तो यही है कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही मजदूरों को सकुशल बाहर निकाल लेने की सफलता की खुमारी से समय रहते बाहर निकले और सिलक्यारा की चूक के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को सामने ले की पहचान करें तथा इस तथ्य पर गंभीरता पूर्वक विचार करें कि विकास की सुरंग से खोखला होता हिमालय आखिर कब तक टिका रह पाएगा ? हालांकि सुदूर पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को राज्य के विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए ऐसे विकास कार्यों का कराया जाना जरूरी है ,लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसी सुरंग एवं बड़ी परियोजनाओं के निर्माण में जिस एहतियात की जरूरत है अथवा नहीं ?
देखा जाए तो उत्तराखंड के भूगोल का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है. चौबीस हजार करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं. हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की आजकल बाढ़ आई हुई है.इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में मिलाने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं. बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है. इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखर भी दरकने लगे हैं.हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया हैं. उत्तरकाशी हो या जोशीमठ , सब इसी अनियोजित विकास की परिणति है.सड़क परियोजनाओं के अलावा उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं. इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़े किए जाते हैं.कई जगह सुरंगे बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है. नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडोें के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जा रही हैं .यही नहीं कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए भीषण विस्फोट करके भी हिमालय को हिलाया जा रहा है.गोया, प्रस्तावित सभी परियोजनाएं कालांतर में अस्तित्व में लाए जाने के उपाय जारी रहते हैं तो हिमालय का क्या हश्र होगा, कहना मुश्किल है?हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएं भी निर्माणाधीन हैं.सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों (टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज्यादा गांवों को भी विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है.दरअसल, ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना १२५ किमी लंबी है.इसके लिए सबसे लंबी सुरंग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो १४.८ किमी लंबी है.केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है, बाकी जो १५ सुरंगे बन रही हैं, उनमें ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैंहिमालय की ठोस व कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की ज़ड़ें भी हिला रहे हैं.हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज्यादा संवेदनशील है. रेल परियोजनाएं इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे और ऊपर निर्माणाधीन हैं .रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हजार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं. सिलक्यारा-पोलगांव सुरंग भी इसी उद्देश्य से बनाई जा रही है. इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मजबूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं. हालांकि, ये सड़कें सेना के लिए अत्यंत उपयोगी हैं, सैनिकों का हिमालयी क्षेत्र में इन सड़कों के बन जाने से चीन की सीमा पर पहुंचना आसान हो गया है, लेकिन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से जो निर्माण किए जा रहे हैं, उन पर पुनर्विवार की जरूरत है. श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए पहाड़ की छाती चीरकर सुरंग बनाना समझदारी नहीं है? इस उपाय से समय और पैसा तो बचेंगे, लेकिन पहाड़ नष्ट हो जाएंगे, अर्थात जब तेल ही नहीं रहेगा तो दीया कैसे जलेगा?