कर्नाटक में ‘जन की जीत’: आक्रामक चुनाव प्रचार को अपेक्षित नतीजों में परिवर्तित नहीं कर सकी भाजपा

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(दो-टूक/त्वरित टिप्पणी) @uttaranchaldarpan.in
भारत की राजनीति के वर्तमान स्वरूप,जिसमें जनता के मुद्दों को  भावनात्मक मुद्दों की आड़ में गायब कर देने का एक चलन सा बन पड़ा था, के मद्देनजर यह एक सवाल सहज ही उठने लगा था कि उच्च राजनैतिक मूल्यों व स्वस्थ राजनीति का दौर अब हमारी राजनीति में फिर कब देखने को मिलेगा? कब देश में सिद्धांतों की राजनीति राजनीति अपने उरूज पर आएगी? और कब कोई चुनाव आदर्शों-मूल्यों के आधार पर लड़ा जाएगा तथा कब चुनावों में परस्पर गालियां देने के बजाय राजनीतिज्ञ के अच्छे-बुरे काम गिने-गिनाये जाएंगे? अब सुदूर दक्षिण भारत के एक प्रांत कर्नाटक के जनादेश से निकले जनादेश ने शायद कदाचित इस सवाल का इसका जवाब दे दिया है। कर्नाटक का यह चुनाव मुख्य रूप से सत्ताधारी दल भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच आर पार की लड़ाई का था , जबकि कर्नाटक की एक अन्य क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय जनता दल;सेक्युलरद्ध इस विधानसभा चुनाव में अपने पुराने जनाधार को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही थी।मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने जहां एक रणनीति के तहत हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर स्थानीय मुद्दों को अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में रखा था, वही भाजपा अपने पुराने अस्त्र-शस्त्र अर्थात भावनात्मक मुद्दों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि तथा अल्पसंख्यक आरक्षण की समाप्ति घोषणा के सहारे विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करने के फिराक में थी । कर्नाटक विधानसभा के इस बार के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी आरंभ से ही बैकफुट में नजर आ रही थी क्योंकि कर्नाटक में वह तीव्र सत्ता विरोधी लहर का सामना करने के साथ ही भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोपों से भी जूझ रही थी। इसके अलावा क्षेत्रीय छत्रपो की आंतरिक कलह से निपटना भी उसके लिए एक कठिन चुनौती थी। हालांकि विधानसभा चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आक्रामक चुनाव प्रचार व बजरंग दल पर बैन के मुद्दे को आधार बनाकर कुछ समय के लिए Úंटफुट पर आते हुए अवश्य दिखी ,परंतु वह अपने आक्रामक चुनाव प्रचार को अपेक्षित नतीजों में परिवर्तित नहीं कर सकी तथा वह दोपहर तक के रूझानों में कांग्रेस पार्टी को प्राप्त 134 सीटों की तुलना में 64 पर सत्ता प्राप्ति की दौड़ में काफी पीछे रह गई । कर्नाटक से निकले जनादेश के बाद भाजपा को अब बात यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जनता को अब केवल भावनात्मक मुद्दों अर्थात धर्म  संप्रदायिकता आदि के आधार पर अधिक समय तक  बहलाया नहीं जा सकता । ऐसे भावनात्मक मुद्दों के भ्रम जाल में जनता को कुछ समय तक तो उलझाया जा सकता है लेकिन यह रणनीति दीर्घकालिक नहीं है । देर-सवेर जनता का ध्यान अपने आसपास के घटनाक्रम एवं दैनिक जीवन से जुड़ी कठोर सच्चाई यों की ओर जाता ही है और ऐसी स्थिति में आम जनजीवन से जुड़ी दुश्वारियां ही चुनावी मुद्दा बन जाती हैं ।इस सच्चाई को भाजपा जितनी जल्दी गांठ बांध ले उसके लिए उतना ही अच्छा होगा। अन्यथा आने वाला समय राजनीतिक दृष्टि से भाजपा के लिए कष्टकारी हो सकता है क्योंकि आम जनमानस का ध्यान अब भावनात्मक मुद्दों से हटकर अपनी रोजमर्रा की दुश्वारियां पर केंद्रित होने लगा है।कर्नाटक में महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार प्रमुख बड़े चुनावी मुद्दे रहे हैं और भाजपा इस विधानसभा चुनाव में आम जनता से जुड़े इन मुद्दों की कोई कारगर काट नहीं ढूंढ पाई ।कर्नाटक विधानसभा चुनाव से निकले जनादेश का विश्लेषण राजनीतिक दल व राजनीतिक समीक्षक अपने-अपने नजरिए से तो करेंगे ही ,लेकिन कर्नाटक का यह चुनाव इस मायने में बेहद खास है कि यह चुनाव कम से कम एक राजनीतिक दल द्वारा जनता की रोजमर्रा की दुश्वारियां को केंद्र में रखकर लड़ा गया और उसे जनता के मुद्दे पर जनता का भरपूर  आशीर्वाद भी मिला ।भारत के लोकतंत्र की दृष्टि से यह एक बड़ी बात है  कि कर्नाटक के आम जनमानस ने भावनात्मक उभार की तमाम कोशिशों पर मुद्दों को तरजीह दी है। लिहाजा इसे जन की जीत कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा।

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