नरभक्षी गुलदार: आखिर ‘कब तक खाते रहेगा’ कलेजे के टुकड़ों को?

बागेश्वर जिले में लगातार बढ़ता जा रहा गुलदारों का आतंक,कई बच्चों को बना चुके है निवाला

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देहरादून/बागेश्वर। कुमाऊँ मंडल के बागेश्वर जिले में एक बार फिर नरभक्षी गुलदार नन्ही बच्ची को अपना निवाला बना लिया। सरयु नदी के तट पर स्थित नदीगांव में देर सायं गुलदार छःवर्षीय शर्मिला पुत्री धन बहादुर की बेटी को आंगन से उठा ले गया। ग्रामीण भी जंगल की ओर दौड़ पड़े। इस बीच गुलदार बच्ची को कुछ ही दूरी पर छोड़कर भाग गया। घायल बच्ची को ग्रामीण जिला अस्पताल ले गये लेकिन तब तक बच्ची ने दम तोड़ दिया। बालिका की मौत से क्षेत्र में दहशत का माहौल व्याप्त है। पिछले एक साल में इसी जिले के विभिन्न क्षेत्रों में गुलदारों के हमले से आधा दर्जन से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है जबकि पशुओं के साथ ही ग्रामीणों पर हमले की घटनायें भी हो चुकी है। इसके बावजूद इन घटनाओं को रोकने के लिये न तो वन विभाग के अफसरों ने कोई ठोस योजना तैयार की है और न ही सरकार के किसी नुमाईने ने इस ओर देखने की फुरसत निकाली। मौत के बाद सरकारी मदद के नाम पर चंद टके थमा दिये जाते है लेकिन घटनाओं को रोकने की जहमत उठाने की हिम्मत कोई नहीं करता। गौर हो कि जिस प्रकार जिले में गुलदार आये दिन गा्रमीणों के जिगर के टुकड़ों को एक  एक कर अपना निवाला बना रहे है उससे हालात खैफनाक साबित हो सकते है। बता दे कि पिछले एक साल में उत्तराखंड में गहराते मानव-वन्यजीव संघर्ष को एक बार फिर उजागर किया है। यहां पर्वतीय क्षेत्र की आबादी के बीच खुले और घने जंगलों में रहने वाले गुलदार बल्कि भालू, बंदर, लंगूर, सूअर, नीलगाय, हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों का आतंक पूरी तरह से चरम पर है। पहाड़ी क्षेत्रों के साथ ही मैदानी जिलों में हाथियों के आतंक के मामले में भी तस्वीर इससे जुदा नहीं है। हिंसक वन्यजीव जान का सबब बनते जा रहे हैं तो वहीं दूसरे छोटे जानवर फसलों को चैपट कर रहे हैं। वन्यजीव लगातार आबादी की ओर रुख कर रहे हैं। अब तो हालात और भी चिंताजनक हो चुके हैं, लेकिन सरकार और शासन में बैठे लोग इस पर जरा भी गंभीर नजर नहीं आते। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर चिंता जरूर जताई जाती है, लेकिन धरातल पर स्थिति से निबटने के लिए कोई कदम उठाने की जहमत नहीं उठाई जाती है। हालात लगातार बिगड़ रहे हैं और पहाड़ों के ग्रामीण क्षेत्रों में दहशत में जिंदगी जीने को लोग मजबूर हैं। 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड के आठ जिलों में तो वहां यह संकट विकराल रूप ले चुका है। कब कहां से नरभक्षी गुलदार आ धमके, कहा नहीं जा सकता। कहने का आशय यह कि न घर आंगन सुरक्षित है और न खेत-खलिहान। और तो और बच्चों का स्कूल भेजने में अभिभावक कतराने लगे हैं। जान सांसत में है, बल्कि खेतों में खड़ी फसलों पर वन्यजीवों के धावा बोलने से अगली फसल के लिए बीज तक नसीब नहीं हो पा रहा। पर्वतीय इलाके बल्कि मैदानी इलाकों में हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों ने सांसें अटकाई हुई हैं। यानी सूबे का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है, जहां मानव और वन्यजीवों के मध्य यह जंग न छिड़ी हो। बावजूद इसके यह जंग थामने को अब तक कोई पहल होती नजर नहीं आ रही और इस संघर्ष में मानव व वन्यजीव दोनों को ही जान देकर कीमत चुकानी पड़ रही है। ऐसे में यही सवाल सबकी जुबां पर है कि यह जंग आखिर कब थमेगी।

बंदरों,बाघो,गुलदारों को अलग अलग जंगलों में करना होगा कैद

देहरादून। देश में पर्यावरण और जंगलों की सुरक्षा की खेवनहार एनजीटी की कार्ययोजनायें भी सिर्फ दिशा निर्देश देने तक ही सीमति रह गई है। प्रदेश में तेजी से मानव और जंगदी जानवरों की बीच संघर्ष और मौतों को लेकर न तो सरकारों की चिंता है और न अफसरों को। पर्यावरण में हो रहे बदलाव के बाद जंगलों में वनस्पतियों के साथ ही वन्यजीवों की संख्या में भी कमी आयी है। जिसका असर अब बड़े वन्य जीवों और मांसाहारी जानवरों ने भोजन और पानी की जरूरत पूरी करने के लिये आबादी की ओर रूख करना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं अब तो बंदरों के हमले से लोगों की जान को खतरा बना हुआ है। आये दिन कनखटे बंदरों और लंगूरों के आतंक की घटनायें होती रहती है। इसे रोकने के लिये भी वन महकमें के अफसरों को ठोस कार्ययोजना बनानी होगी। हालाकि प्रदेश में तमाम बड़े बड़े नेश्नल पार्कों को व्यवस्थित तो किया गया है लेकिन अन्य जिलों में पड़ने वाले इन घने जंगलों की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। प्रदेश में लगातार बढ़ते वन्यजीव एवं मानव संघर्ष की घटनाओं को रोकने के लिये राष्ट्रीय एजेंसियों को बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। गुलदार एवं खुंखार जानवरों के लिये अलग से जंगल विकसित किये  जाने चाहिये। पार्यवरण विदों की माने तो आधुनिकीकरण का असर रोका तो नहीं जा सकता है लेकिन व्यवस्थाओं को बदलकर इसके प्रभाव को जरूर रोका जा सकता है। प्रदेश के पर्वतीय जिलों में अधिकांश क्षेत्र घने जंगलों से घिरे हैं। लिहाजा नरभक्षी गुलदारों को जंगलों में ही कैद करने की योजना बनानी होगी। इन खूंखार मांसाहारी जानवरों के लिये अगल से जंगलों को व्यवस्थित करने की जरूरत है ताकि इनको जंगल में भोजन अैर पानी की जरूरत पूरी हो जाये। कुछ पशुप्रेमियों के अनुसार जंगली जानवरों की व्यकुलता और भूख के कारण लोगों को जानमाल का नुकसान  उठाना पड़ता है। सिकुड़ते जंगल, विकास और जंगल में सामंजस्य का अभाव जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं। यह अलग बात है कि इसके लिए जिम्मेदार भी तो हम ही हैं। और समस्या का समाधान भी हमें ही निकालना है। हांलाकि  गुलदारों के आतंक को रोका तो नहीं जा सकता है पर लोगों को सुरक्षा बरतने की भी जरूरत है। आये दिन गुलदार के हमले से बच्चों में भय का माहौल है। घर के आंगन से खेलते बच्चों को उठाने की यह पांचवी घटना है। लेकिन लोगों को भी बच्चों की सरुक्षा स्वयं करनी होगी। लिहाज से सरकार और वन महकमे की ओर से अभी तक सिर्फ कोरी बयानबाजी ही हो रही है। होना तो यह चाहिए था कि पर्वतीय इलाकों में पलायन के एक कारणों में शामिल मानव-वन्यजीव संघर्ष को देखते हुए सरकार इसके लिए ठोस कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारती। ऐसे कदम उठाए जाते, जिससे वन्यजीव भी महफूज रह सके और लोगों को भी जान का खतरा न रहे।

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