‘आका’ बने हरदा तो ‘इंदिरा’ बनेगी ‘अम्मा’?
उत्तराखंड कांग्रेस के सयासी ग्राफ में आया सबसे अहम मोड़,हरदा की फोटो गायब
वर्चस्व की जंग: सियासी धुरंदर की टीम राहुल में ऐंट्री से बढ़ रही खेमेबाजी
देहरादून। आगामी लोकसभा का चुनाव मैजिक मैन ‘मोदी’ बनाम युवा जोश ‘गाधी’ के नाम पर होगा इसमें कोई दो राय नहीं है। इसी सरगर्मी में सियासी दलों ने अभी से तैयारियां भी शुरू कर दी है। देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद मोदी लहर में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से लड़खड़ा गई है। अब एक बार फिर कांग्रेस के सुप्रीम लीडर राहुल गांधी ने आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अपनी टीम बड़ा बदलाव कर दिया है। अपनी इस नयी टीम में उन्होंने न सिर्फ पुराने नेताओं की छटनी कर दी वहीं उन्होंने चैकाने वाले चेहरे भी अपनी टीम में शामिल किये है। इतना ही नहीं राहुल गांधी देश की आधी आबादी को साधने की जुगत में है। पार्टी का कुनबा बढ़ाने के साथ ही नये सदस्यों को जोड़ने के लिये उन्होंने राष्ट्रीय महिला कांग्रेस को ‘शक्ति एप’ देकर बड़ा अवसर देने का प्रयास किया हैं। वहीं अब तो महिला पाॅलिटिक्स के लिये अगल झंडा भी तैयार कर लिया गया है। चुनाव में मोदी सरकार से मुकाबले के लिये पार्टी सुप्रीमो का यह बदलाव कार्यकर्ताओं में नयां संदेश दे गया है। इस बार राहुल गांधी की टीम में कई वरिष्ठ नेताओं को मौका नहीं दिया गया है। जबकि पार्टी के कई ऐसे वरिष्ठ नेताओं के साथ ही युवा चेहरों को भी बड़ी जिम्मेदारी भी सौंपी गई है। पार्टी में इस बदलाव का असर दिखने लगा है। इसका सबसे बड़ा असर उत्तराखंड में भी देखा और सुना जा सकता है। पार्टी में खेमेबाजी इस कदर बढ़ चुकी है कि पार्टी मुख्यालय में लगी अलग अलग नेताओं की तस्वीरें तक कुछ खुरापाती नेताओं को रास नहीं आ रहे है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस भवन से हरीश रावत की तस्वीरें गायब कर दी गई है। जबकि कई बार बडे कार्यक्रमों के बैनर पोस्टर आदि में भी इस तरह से खेल खेला जा रहा है। प्रदेश में कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता हरीश रावत को पार्टी के महासचिव पद की जिम्मेदारी सौंपी गई है तभी से पाटी्र्र में उथल पुथल सी मची हुई है। गौर हो कि उत्तराखंड में कई दशकों से सक्रिय राजनीति कर रहे पार्टी के वरष्ठितम नेता हरदा पर पार्टी सुप्रीमो का भरोसा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। माना जाता है कि पहले मुख्यमंत्री पद के लिये उनका नाम राहुल गांधी ने ही आगे किया था। प्रदेश की कांग्रेस पार्टी के सियासी इतिहास को देखा जाये तो एनडी तिवारी के बाद हरीश रावत मौजूदा समय में सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं। हरीश रावत कांग्रेस में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के साथ ही राजीव गांधी के कार्यकाल से ही सक्रिय राजनीति कर रहे है। राहुल गांधी के साथ भी हरदा के गहरे सबंध दिखते है। पूर्व सीएम हरीश रावत के आग्रह पर राहुल कई बार उत्तराखंड आये है। श्री केदारनाथ यात्रा के लिये आमंत्रित करने पर वह पैदल मार्ग से हरदा के साथ धाम पहुंचे थे। हांलाकि पिछले विस चुनाव में कांग्रेस नेअच्छा प्रदर्शन नहीं किया। अभी प्रदेश में भाजपा की सरकार है और विपक्ष में कांग्रेस के सिर्फ 11 नंबर है। जिसमें पार्टी की कद्दावर महिला डा. इंदिरा को नेता प्रतिपक्ष का पद मिला है। राहलु गांधी के इस बदलाव बाद चर्चायें भी तेज हो गई थी कि आखिर दो दो बड़े चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार के बावजूद भी हरीश रावत पर इतना भरोसा कैसे किया गया। जबकि प्रदेश के कई ऐसे वरिष्ठ नेता भी हैं जो चुनाव में जीत हासिल कर पार्टी की लाज बचा रहे है। विश्वास तो ऐसे कार्यकर्ताओं पर दिखाना चाहिये। बहरहाल पार्टी के भीतर गुटबाजी के झगड़े भी कम नहीं हो रहे है। 2019 के चुनाव से पहले कांग्रेस के लिये वरिष्ठ नेताओं की गुटबाजी और नाराजगी को दूर करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। सोशल मीडिया पर भी कार्यकर्ताओं के बीच हरीश रावत का काफी प्रभाव दिखायी देता है। उनके असम दौरे को भी उत्तराखंड के कार्यकर्ता फोलो करते हैं। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके प्रदेश में रहने या न रहने से कोई फरक नहीं पड़ रहा। उत्तराखंड के साथ ही असम में भी हरीश रावत की सक्रियता से पार्टी में जोश दिख रहा है। कांग्रेस की केंद्रीय वर्किंग कमेटी में दायित्व मिलने के बाद जब वह पहली बार देहरादून पहुंचे थे तो कार्यकर्ताओं को भारी उत्साह दिखा। आगामी चुनाव से पहले हरदा की रणनीति पर विरोधी दलों के नेताओं की नजर है। हांलाकि हरदा सरकार के कामकज के साथ ही भाजपा पर जहां हमलावर रहते हैं वहीं अपने सुझाव भी व्यक्त कर मुद्दों को भुनाने से भी पीछे नहीं रहते। हांलाकि हरीश रावत गुटबाजी को लेकर उतावलापन दिखाने की बजाय जमीनी बातों को प्रमुखता देकर विवादों का मैनेजमैंट भी कर देते हैं। सियासी विरोधियों के साथ ही अपनी ही पार्टी के विरोधियों को साधने में वह कई गुना आगे ही दिखते हैं। कुलमिलाकर देखा जाये तो प्रदेश कांग्रेस में अब हरदा आका तो बन गये हैं लेकिन क्या राहुल का यह भरोसा पार्टी में खेमेबाजी को भी खत्म कर पायेगा या नहीं यह काफी अहम होगा।
कांग्रेस की सियासी पिच पर इंदिरा की गुगली से हरदा हुए क्लीन बोल्ड
हरीश रावत को जिम्मेदारियों देकर उत्तराखंड से बाहर करने के पीछे भी बड़ा खेल हुआ है। इस रणनीति के पीछे किसका रोल है यह बताने की जरूरत नहीं मगर कांग्रेस की सियासी पिच पर अब कद्दावर इंदिरा की गुगली में हरदा क्लीन बोल्ड हो गये। माना जाता है कि राहुल से हुई मुलाकात में इंदिरा और प्रीतम की जोड़ी ने प्रदेश के सियासी हालात के साथ ही हरीश रावत को लेकर भी चर्चा की थी। हरदा के करीबी कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि हरीश रावत खुद ही सक्रिय रहते हैं । लेकिन बड़ी जिम्मेदारी मिलने के बाद अब वह कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं से दूरी बढ़ जायेगी। मगर इसके बाद भी कार्यकर्ता उनसे काफी प्रभावित होते हैं। उनकी सक्रियता पार्टी को मजबूत करती है। उनकी सरकार के कार्यकाल में अब तक की सरकारों में से सबसे तेजी से कार्य हुए। जनहित में सबसे अधिक घोषणायें करने का रिकार्ड उन्होंने बनाया है। उन्हें आज भी उसी दृष्टि से देखा जा रहा जैसा वह छोड़कर गये थे। हांलाकि हरीश रावत के सियासी विरोधियों की भी कमी नहीं है। राज्य गठन के बाद प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी नेताओं ने अपनी ही सरकार गिराने का खेल खेला। इस खेल ने राज्य के इतिहास को दर्द देने का काम किया। उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा हरीश सरकार गिरने की तथाकथित अधिसूचना के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।संख्याबल होने के बावजूद यह निर्णय हरदा के लिये भी यह दुभाग्य ही था लेकिन वह इस मुश्किल को भी पार कर गये। वह दुसरी बार बहुमत साबित करने में सफल भी रहे। कांग्रेस में मची इस उथल पुथल में शुरूआत से ही कांग्रेस का हाथ थामे कई ऐसे नेताओं ने सरकार गिराने से लेकर पार्टी छोड़ने तक का कदम उठाकर सभी को चांैका दिया था। लेकिन हरदा डटे हुए हैं। हरदा से छिटकने वाले यह नेता आज फिर सत्ता की बागडोर थामे हुए हैं। इसके बावजूद हरीश रावत के खिलाफ खुलकर आवाज उठाने की हिम्मत किसी की नहीं हुई है। हरदा का यही आत्मीयतापूर्ण अंदाज सबको आकर्षित करता है। यह उनको गाॅड गिफ्ट मिला हुआ है। एक ओर जहां विरोधियों के हमले होते है वहीं पार्टी और खुद की शर्मनाक हार को छिपाते हुए वह आगे बढ़ने से नहीं घबराने वाले। पिछले दिनो जब उनकी आम पार्टी में स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की एंट्री को भी हरदा के कुशल परफोमेंस का ही हिस्सा माना जा रहा है। प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए हरदा ने सरकारी योजनाओं को अपने अंजाद में शुरू कराने की बीत हो या फिर घोषणाओं के जरिये आम जनमानस में आशा और आकांक्षाओं को जागृत करना। वह हमेशा कुछ नया ही करने की सोचते है। बुजुर्गो, महिलाओं व बेरोजगारी, पलायन के साथ ही स्थानीय उत्पादों को लेकर वह जनजागरूकता अभियान भी चला रहे हैं। इसके बावजूद सोशल मीडिया पर हरदा केे फाॅलोवर्स भी बढ़ रहे है। कुलमिलाकर देखा जाये तो उत्तराखंड के इस धुरंदर राजनेता की राहुल की टीम में शामिल होने के बाद उनको भविष्य की राजनीति पर भी मजबूती मिलेगी। उन्हें असम प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी भी बनाया गया है। हरदा को मिली यह जिम्मेदारियां प्रदेश में कांग्रेस के लिये फायदेमंद होगी। प्रदेश का कोईभी नेता केंद्र की राजनीति में सक्रिय नहीं है। अल्मोड़ा से राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा ही एकमात्र चेहरा हैं जो दलित राजनेता के रूप में चर्चित रहते है हरदा के करीबी भी है। आने वाले समय में अगर केंद्र में सरकार बनी तो हरदा प्रदेश के विकास के लिये अहम भूमिका निभायेंगे।
निशाना तो 2019 पर लेकिन लक्ष्य 2022 का भेद रही हैं कद्दावर इंदिरा
वहीं दूसरी तरफ नजर डालें तो कांग्रेस पार्टी में दिग्गज नेताओं के वर्चस्व और पार्टी के सियासी ग्राम में सबसे अहम मोड़ आ गया है। प्रदेश कांग्रेस में दसूरे नंबर की कद्दावर नेत्री माने जाने वाली डा.इंदिरा हृद्येश की सक्रियता बढ़ गई। सियासी गलियारों में भी उनकी इस सक्रियता के कई मायने निकाले जा रहे हैं। सियासत में सत्ता कब किसके हाथ लग जायेगी यह कोई नहीं जानता लेकिन चर्चायें तेज हो रही है कि हरीश रावत के राहुल की टीम में शामिल होते ही इंदिरा ने भी अब अम्मा बनने की योजना बना ली है। कांग्रेस में इन दिनों कई वरिष्ठ नेताओं में असंतोष के ज्वार फूट रहे हैं। आरोप तो यहां तक लगाये जा रहे हैं कि जो नेता पार्टी का कुनबा बचाने के लिये डटे रहा आज उनको पूछा तक नहीं जा रहा है। पूर्व विस अध्यक्ष गोविद सिंह कुंजवाल ने पिछले दिनों गुटबाजी को लेकर बड़ा बयान दिया था। नेताओं में तल्खी इनती बढ़ चुकी है कि उन्होंने पार्टी के प्रदेश प्रभारी के समक्ष ही प्रदेश अध्यक्ष के रवैये पर ही सवाल उठा दिये थे। हांलाकि बाद में सभी एक दिशा में चलने को सहमत हो गये। इतना ही नहीं पिछले दिनों नैनीताल की पूर्व विधायक सरिता आर्य भी नाराजगी व्यक्त कर चुकी हैं कि उनके क्षेत्र में उनकी बात नहीं सुनी जा रही। हांलाकि इस नाराजगी को भी किसी तरह दबा दिया गया। मसलन अब तक गुटबाजी को लेकर जितने भी स्वर फूटे उसमें कहीं न कही डा. इंदिरा हृद्येश का नाम अंदरखाने चलता रहा। वैसे भी नेता प्रतिपक्ष की अहम जिम्मेदारी डा. इंदिरा के पास है जो उनके कुशल कार्यशैली और गंभीर अनुभव का प्रमाण भी है। यह भले ही सियासत की पहेलियों में छिपा पद हो मगर उन्हें इससे भी बड़े पद का हकदार माना जा रहा है। वह आये दिन 2019 के चुनाव को लेकर मोदी सरकार की नीतियों का खुलकर विरोध करने से पीछे नहीं रही। इसके अलावा केंद्रीय नेताओं से इंदिरा का डायरेक्ट कनेक्शन है जो उनके वर्चस्व की सबसे अहम कड़ी है। डा. इंदिरा पूर्व मुख्यमंत्री वयोवृद्ध नेता पंडित एनडी तिवारी का भी सबसे करीबीयों में गिनी जाती है। उस दौर में तिवारी के वोटबैंक को बढ़ाने में श्रीमती इंदिरा ने अहम भूमिका निभायी थी। अब वह खुद कुंमाऊं के सबसे विकसित विस क्षेत्र हल्द्वानी से कई बार चुनाव जीत भी चुकी हैं। पिछली कांग्रेस सरकार में तो वह एक बार शैडो सीएम की भूमिका में भी नजर आयी थी। हरीश रावत की सरकार में बागी विधायकों को पार्टी से बाहर निकालने का निर्णय हो या फिर मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप की सीबीआई से जांच की संस्तुति तक को निरस्त कराने में इंदिरा ने हरदा को बचाने का प्रयास किया था। यह भी इंदिरा और हरीश रावत के बीच तकरार की अफवाहों को मैनेज करती है। हांलाकि हरीश रावत भी अक्सर इंदिरा को प्रमुखता देते रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के नये अध्यक्ष प्रीतम सिंह भी प्ररिस्थितियों को भांप कर ही अपने कदम बढा रहे हैं। प्रीतम का राजनैतिक कैरियर भी बड़े से बड़े दिग्गजों को टक्कर देता है। कांग्रेस में चुनावी हार का ठीकरा जहां कद्दावर नेता किशोर उपाध्याय पर फोड दिया गया और यह संदेश दिया गया कि यह हार कि नैतिक सजा है। किशोर की दगाबाजी से नाराज होकर खुद हरीश रावत भी प्रीतम को अध्यक्ष बनाने ही पैरवी करते रहे। यही वजह रही कि पार्टी में तमाम वर्गो का दखल होने के बावजूद इस जैनसारी नेता को पार्टी की कमान सौंपने में किसी को गुरेज नहीं हुआ। मौजूदा दौर में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष डा. इंदिरा पार्टी में सबसे बड़े चेहरे बनकर उभर रहे हैं। भविष्य में इनका प्रभाव और बढ़ेगा।
पुराने दिग्गज नेताओं के भाजपा में चले जाने से भी इंदिरा की राह और आसान
वर्तमान नेता प्रतिपक्ष डा. इंदिरा के राजनैतिक कैरियर में अब सबसे अहम मोड़ आ रहा है। माना जा रहा है कि पिछले तीन वर्षों में जिस प्रकार कांग्रेस कई पुराने दिग्गज नेता जिसमें वर्तमान कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज,हरक सिंह रावत,विजय बहुगुणा और यहां तक कि उनके ही गृहक्षेत्र के सबसे कद्दावर नेता यशपाल आर्य के अचानक पार्टी छोड़ने से भी राह और आसान होगई है। इंदिरा के लिये यह खेमेबाजी सुनहरा अवसर साबित हो रहा है । हांलाकि अब तक कोई भी नेता डा. इंदिरा के विरोध में खुलकर बयानबाजी करने से बचता रहा। समझा जाता है कि प्रदेश कांग्रेस में अब इंदिरा इफैक्ट नजर आयेगा। पिछले दिनो हरीश रावत और इंदिरा के बीच जमकर बयानबाजी हुई थी। डा. इंदिरा ने यहां तक कह दिया था कि वरिष्ठ नेताओं को सन्यास लेकर युवाओं को मौका दिया जाये। लेकिन इंदिरा की इस सियासत के पीछे की वजह को हरीश ने आसानी से भाप लिया और उल्टा इंदिरा को ही नसीहत दे दी कि पहले शुरूआत खुद कर लें। इसके बाद भी डा. इंदिरा और हरीश रावत खेमे में जुबानी हमले चलते रहे। पिछले दिनों नैनीताल में हुई एक जनसभा में डा. इंदिरा ने स्वीकार किया था कि आलाकमान अगर मौका देगा तो वह लोकसभा को चुनाव अवश्य लड़ेंगी। हांलाकि उनका यह दावा सिर्फ विरोधियों को साधना था। राजनीतिक जानकारों के माने तो ंआने वाले समय में इंदिरा हृद्येश पार्टी के लिये नया इतिहास लिखने को बेताब है। पिछले दो से तीन वर्षाें में प्रदेश कांग्रेस का सियासी ग्राफ तेजी से बदल रहा है। पार्टी में खुद कई वर्षों से सक्रिय रहे पुराने दिग्गज नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है। पिछली बार एक साथ कांग्रेस के 9 तत्कालीन विधायकों ने पार्टी छोड़ दी थी जो कई बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। इधर इन तीन वर्षों में कांग्रेस भी हासिये पर चली गई है। अब कांग्रेस के सामने अपना वजूद बचाने के लिये निकाय चुनाव के साथ ही लोकसभा के चुनावों को जीतना बेहद कठिन होगा। इस बीच भले ही खेमेबाजी को हवा दी जा रही हो मगर पार्टी के नये परिदृश्य में अब बड़े चेहरों की तलाश भी है। लिहाजा डा. इंदिरा हृद्येश ही एक ऐसा चेहरा है जिसे मौजूदा समय में सर्वमान्य माना जाता रहा है।
युवा उत्तराधिकारियों की सक्रियता से बदले सियासी हालात
इधर अब युवा नेताओं के साथ ही वरिष्ठ नेताओं के उत्तराधिकारी भी खासे सक्रिय हो चुके हैं। इनमें से कुछ तो सत्ता का स्वाद तक चख रहे हैं। मौजूदा समय में कांग्रेस पार्टी में कांग्रेस के युवा नेताओं की भरमार है। पूर्व सीएम व राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत के पुत्र आनंद सिंह रावत,नेता प्रतिपक्ष डा. इंदिरा हृदेश के पुत्र सुमित हृद्येश,प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह,रणजीत सिंह रावत के पुत्र गोपाल सिंह रावत भी आने वाले समय में मुख्य राजनीति का हिस्सा बनने की तैयारी में है। जबकि कुछ ऐसे नेताओं के पुत्र भी हैं जो कम समय में ही अपनी परिजनों की राजनीतिक विरासत के बल पर सत्ता में आ गये हैं। कुंमाऊ में युवा नेताओं की सक्रियता अधिक दिख रही है। नैनीताल से कैबिनेट मंत्राी यशपाल आर्य के पुत्र विधयक हैं तो वहीं वरिष्ठ नेता व पूर्व सीएम विजय बहुगुणा के पुत्र भी सितारगंज से विधायक चुने गये हैं। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी की बेटी रितु खंडूरी भी विधायक बन चुकी है। कुलमिलाकर देखा जाये तो युवा नेताओं की सक्रियता से जहां बड़े नेताओं की सियासी जमीन असर पड़ रहा है वहीं अपने परिजनों की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिये युवा नेता तेजी दिखा रहे हैं। आगामी लोकसभा के चुनाव मंे इन नेताओं की अहम भूमिका रहेगी। माना जा रहा है इनमें से कुछ नेता लोकसभा के लिये भी तैयारी कर रहे हैं। बहरहाल कांग्रेस के सियासी इतिहास और भुगोल में हो रहा यह बदलाव बड़ा बड़े दिग्गजों के वर्चस्व की जंग में बड़ा प्रभाव छोड़ सकता है।
नरेंद्र बघरी (नरदा)