देहरादून। सरकारी भूमि, मलिन बस्तियों अथवा नजूल लैंड को लेकर राज्य सरकार की नीति को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है। अब जनता की नजरें एक बार फिर सरकार पर टिकी हुई है। पिछले दिनों राजधानी समेत अन्य जिलों में बने मलिन बस्तियों को बचाने के लिये जिस प्रकार त्रिवेंद्र सरकार ने न्यायालय के फैसले से बचने के लिये अध्यायादेश लाकर सभी को चाैंका दिया था। इस अध्यायादेश की मियाद भले ही तीन वर्ष रखी गई है मगर क्या तीन साल बाद यहां के हालात कैसे होंगे इस पर भी लोगों के मन में सवाल उमड़ रहे हैं। जबकि राज्य सरकार के समक्ष दूसरी सबसे बड़ी चुनौती हजारों की तादात में नजूल लैंड पर बसे लोगों को बचाने के लिये खड़ी हो रही है। क्या इस मसले पर भी सरकार अध्यादेश लायेगी? अतिक्रमण को लेकर मौजूदा समय में राजधानी देहरादून और यूएसनगर जनपद में इस अभियान का व्यापक असर देखने को मिल रहा है। राजधानी देहरादून में अब तक कुल 3321 अतिक्रमणों का ध्वस्तीकरण, 6814 अतिक्रमणों का चिन्हीकरण व 108 भवनों के सीलिंग किया जा चुका है। केंद्र की स्मार्ट सिटी योजना हो या फिर सड़कों के चौड़ीकरण की योजना हर जगह अतिक्रमण और अवैध कब्जे आड़े आने लगे हैं। न्यायालय के आदेश का असर यह है कि जिन संस्थाओं की शह पर शहर भर में कब्जे हुए हैं, वही आज फीता लेकर गरज बरस रहे हैं। सरकार ने सब कुछ नौकरशाहों के भरोसे छोड़ दिया है। सरकारी मशीनरी 1938 का राजस्व नक्शा लेकर सड़कों पर लाल निशान लगाने उतरी है । एक बड़ा सवाल यह भी है कि जिस 1938 के नक्शे के आधार पर लाल निशान लग रहे हैं, उसका विधिक आधार क्या है । जिस एमडीडीए और नगर निगम के अधिकारी आज तानाशाह बने हुए हैं उनके मंजूर किये नक्शों की वैधता क्या है ? इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है । सिर्फ न्यायालय के आदेश का भय दिखाकर कार्यवाही को अंजाम दिया जा रहा है। इससे सरकार के प्रति आम लोगों में नाराजगी है। नाराजगी अभियान को लेकर नहीं बल्कि सरकार के रवैये को लेकर है । सरकार चाहती तो उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल आम नागरिकों और व्यापारियों को विश्वास में लेकर भी कर सकती थी। व्यापक स्तर पर प्रभावित होने वाले लोगों के लिए कोई योजना तैयार कर सकती थी, उन्हें भरोसा दे सकती थी । लेकिन सरकार ने यह सब जरूरी ही नहीं समझा ।
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